Friday, June 5, 2020

तारागढ़ दुर्ग : बूंदी(Taragarh Fort: Bundi)

तारागढ़ दुर्ग : बूंदी

जय माताजी🙏🙏🙏

अरावली की पहाड़ियों में स्थित सुरम्य किला
तारागढ़ दुर्ग अरावली की ऊंची पहाड़ियों में से एक नागपहाड़ी पर बना एक शानदार दुर्ग है। इसे बूंदी का किला भी कहते हैं। चौदहवीं सदी में बूंदी के संस्थापक राव देव हाड़ा ने इस विशाल और खूबसूरत दुर्ग का निर्माण कराया था। चौदहवीं सदी के मध्य में बना यह शानदार ऐतिहासिक दुर्ग आज भी बूंदी के पर्यटन को वैश्विक स्तर प्रदान करता है।
इस दुर्ग को बूंदी नरेश ने अपनी रियासत की शत्रुओं से पूरी तरह सुरक्षा के लिए ही निर्मित कराया था। इसलिए देश के सबसे सुरक्षित किलों में यह एक है। किले का निर्माण करने के लिए पहाड़ी के एक सिरे को पूरी तरह ढलवां बना दिया गया था और फिर इसे कगार पर बनाया गया। लंबे समय तक इस दुर्गम और दृढ सुरक्षित दुर्ग ने बूंदी रियासत की हिफाजत की।




जर्जर कर दिया समय ने
वक्त के थपेड़ों से जर्जर हालात तक पहुंच चुके इस भव्य दुर्ग का इतिहास बहुत रौशन है। भारत के दक्षिण पूर्व हाडौती इलाके में बना यह सबसे प्राचीन और विशालतम दुर्ग है। बूंदी को एक खास शहर बनाने में भी इस दुर्ग का खास योगदान है। तारागढ़ किले के कारण बूंदी एक पर्यटन शहर बन चुका है। हालांकि अपने जीवन के सात सौ वर्ष के इतिहास को देखने भोगने के बाद यह दुर्ग वृद्धावस्था में है लेकिन फिर भी अपने चारों ओर एक सफेद आभा लिए यह दुर्ग मिट्टी के ढेर पर पड़ी सोने की मोहर की तरह कीमती और मूल्यवान है।




तेरहवीं सदी का स्थापत्य
वर्तमान में हरी भरी पहाड़ियों और जंगली इलाके से घिरा यह दुर्ग मौजूदा दौर की उपेक्षा झेल रहा है। तारागढ़ दुर्ग कोटा से 39 किमी की दूरी पर स्थित है। इस शानदार दुर्ग का निर्माण 1354 में किया गया था। पहाड़ी की खड़ी ढलान पर बने इस दुर्ग में प्रवेश करने के लिए तीन विशाल द्वार बनाए गए हैं। इन्हें लक्ष्मी पोल, फूटा दरवाजा और गागुड़ी का फाटक के नाम से जाना जाता है। तेरहवीं चौदहवीं सदी में बने इन विशालकाय दरवाजों में अब तरेड़ें पड़ने लगी हैं और अंधिकांश भाग खंडहर हो गया है। इतिहास के सुनहरे दौर में यह ’स्टार फोर्ट’ सुरंगों के लिए बहुत प्रसिद्ध था। हालांकि अब ये सुरंगें बंद हो गई हैं और नक्शे के अभाव में इनकी खोज कर पाना अत्यंत जटिल काम है।
गर्भगुंजन तोप की महिमा
किले की भीम बुर्ज पर रखी ’गर्भ गुंजन’ तोप अपने विशाल आकार और मारकक्षमता से शत्रुओं के छक्के छुड़ाने का कार्य करती थी। आज भी यह तोप यहां रखी हुई है लेकिन वर्तमान में यह सिर्फ प्रदर्शन की वस्तु बनकर रह गई है। कहा जाता है जब यह तोप चलती थी तब इसकी भयावह गर्जना से उदर में झंकार हो जाती थी। इसीलिए इसका नाम ’गर्भगुंजन’ रखा गया। सोलहवीं सदी में यह तोप कई मर्तबा गूंजी थी। भीम बुर्ज से अब बूंदी का शानदार विहंगम दृश्य देखा जा सकता है। साथ ही बूंदी के हर कोने से भीम बुर्ज पर रखी यह तोप इतिहास की कहानी बयान करती गर्व से खड़ी दिखाई देती है।
जलाशयों का दुर्ग



यहां का चौहानगढ विशाल जलाशयों के कारण प्रसिद्ध है। इतनी ऊंचाई पर किले के परिसर में जलाशय होना दुर्ग की खूबसूरती को बढा देते हैं। यह उस समय अपनाई जाने वाली ’वॉटर हार्वेस्टिंग प्रणाली का बहुत ही उम्दा उदाहरण है। इन जलाशयों में वर्षा का जल सिंचित रखा जाता था और संकटकाल होने पर आम निवासियों की जरूरत के लिए पानी का इस्तेमाल किया जाता था। जलाशयों का आधार चट्टानी होने के कारण पानी सालभर यहां एकत्र रहता था। दुर्ग के परिसर में रानी महल एक छोटा और खूबसूरत महल है जो राजाओं की रानियों और प्रेमिकाओं के रहने के काम आता था। यह खूबसूरत महल अपनी शानदार भित्ति चित्रकला और खिडकियों पर कांच के कार्य के कारण पहचाना जाता है। उचित रख रखाव के अभाव में कांच के रंग फीके पड़ने लगे हैं। दुर्ग परिसर में ही मिरान साबह की दरगाह भी है। मिरान साहब बूंदी दुर्ग में एक वफादार सिपहसालार थे और एक मुठभेड़ में उन्होंने दुर्ग की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति दे दी थी, उन्हीं की स्मृति में यह दरगाह बनाई गई।
पृथ्वीराज चौहान का स्मारक
दुर्ग के रास्ते में ही हाडौती क्षेत्र के सबसे शूरवीर राजपूत राजा पृथ्वीराज चौहान का स्मारक भी बना हुआ है। इस स्मारक का निर्माण चौहान राज की शूरवीरता को चिरकाल तक सम्मान देने के लिए कराया गया था। इस स्मारक को सप्ताह के सातों दिन सुबह 7 से 9 बजे तक देखा जा सकता है।




तारागढ़ का इतिहास
बूंदी की चौकसी के लिए शहर के मुकुट भांति खड़े इस शानदार दुर्ग को राजस्थान के इतिहास लेखाकार कर्नल जेम्स टॉड ने राजस्थान का गहना कहा था। बूंदी शहर की स्थापना हाड़ा चौहान राजपूत कबीले के राज देवा ने 1341 में की थी। इसके बाद विभिन्न शासकों ने बूंदी और तारागढ़ पर राज किया। सोलहवीं सदी में तारागढ़ में कई निर्माण कार्य कराए गए। अपनी निर्मिति के बाद लगातार 200 वर्ष तक इस किले में विकास और निर्माण के कई कार्य कराए गए, जिससे यह दुर्ग फैलता गया। राजस्थान के अन्य किलों की तुलना में इस दुर्ग पर मुगल स्थापत्य कला का कोई खास प्रभाव दिखाई नहीं देता। यह दुर्ग ठेठ राजपूती स्थापत्य व भवन निर्माण कला से बना हुआ है। गढ और महलों के शीर्ष व गुंबद, छतें, मंदिरों के मंडप, जगमोहन, स्तंभ आदि खालिस राजपूत शैली के अप्रतिम और दुर्लभ उदाहरण हैं। कई स्थानों पर स्थापत्य में दर्शाए हाथी और कमल के फूल राजपूती स्थापत्य के ही प्रतीक हैं। एक खास बात और है जो इस किले को राजस्थान के अन्य दुर्गों से अलग करती है। राजस्थान के अधिकांश दुर्ग पीले बलुआ पत्थर से बने हैं। जबकि इस दुर्ग के निर्माण में बलुआ पत्थर का प्रयोग आंशिक तौर पर ही किया गया है। स्थानीय क्षेत्र में उत्खनित होने वाले जटिल संगठनयुक्त हरे रंग के टेढ़ा पत्थर का प्रयोग ज्यादा हुआ है। हालांकि यह पत्थर बारीक नक्काशी के लिए नहीं जाना जाता लेकिन इस पत्थर पर तारागढ दुर्ग में नक्काशी देखकर इतिहासकारों और स्थापत्य के जानकारों को भी हैरानी होती है। दुर्ग के भित्ति चित्र भी बहुत प्रभावी हैं।
आकर्षक खूबसूरती
महल के द्वार हाथी पोल पर बनी विशाल हाथियों की जोड़ी भी पर्यटकों को आकर्षित करती है। दुर्ग के अन्य आकर्षणों में छत्तर महल भी है, 1660 में बने इस महल की खूबसूरती लाजवाब है। इसके अलावा यहां स्थित चित्रशाला, फांसीउद्यान और तोरणद्वार गैलरी भी विशेष हैं। इन्हें 1748 से 1770 के दरमियान बनवाया गया था। इन स्थानों पर राजपूत चित्रकला शैली के भित्ति चित्र बहुत ही मनमोहक हैं। धार्मिक अनुष्ठानों, शिकार और राजसी मनोरंजन को बयां करते ये चित्र ऐतिहासिक दस्तावेज हैं।




कैसे पहुंचें तारागढ़ फोर्ट
तारागढ़ पहुंचने के लिए कोटा से बस द्वारा सफर किया जा सकता है। बूंदी जयपुर और कोटा के बीच नेशनल हाइवे नंबर 12 पर स्थित है। कोटा से बूंदी का रास्ता महज एक घंटे का है और हर पांच मिनट में कोटा से बूंदी के लिए बसें चलती हैं। जयपुर से भी बूंदी के लिए बसें चलती हैं और यह सफर सात-आठ घंटे का है।


................................................................................................................................................................................


English Translation:-

Jai Mataji 🙏🙏🙏
Taragarh Fort: Bundi
The picturesque fort situated in the Aravalli hills Taragarh fort is a magnificent fort built on Nagpahari, one of the high hills of Aravali. It is also called Bundi Fort. In the fourteenth century, Rao Dev Hada, the founder of Bundi, built this huge and beautiful fort. This magnificent historical fort built in the mid-fourteenth century still gives Bundi tourism a global status.
This fort was built by the King of Bundi for complete protection from the enemies of his princely state. Therefore, it is one of the safest forts in the country. To build the fort, one end of the hill was completely molded and then built on the verge. For a long time, this inaccessible and strong fortress protected the princely state of Bundi.
Time has shaken The history of this grand fort, which has reached a state of shambles due to the ravages of time, is very illuminating. It is the oldest and the largest fort built in Hadauti area in the South East of India. This fort also has a special contribution in making Bundi a special city. Bundi has become a tourist city due to the Taragarh Fort. Although after witnessing the history of seven hundred years of its life, this fort is in old age, but still with a white aura around it, this fort is precious and valuable like a gold stamp lying on a pile of clay.
Thirteenth century architecture Presently surrounded by lush green hills and wooded areas, this fort is facing the neglect of the current era. Taragarh Durg is located at a distance of 39 km from Kota. This magnificent fort was built in 1354. Three huge gates have been built to enter this fort on the steep slope of the hill. They are known as Lakshmi Pol, Foota Darwaza and Gagudi Ka Phatak. These giant doors, built in the thirteenth and fourteenth centuries, have now begun to crumble and most of the parts have become ruins. In the golden period of history, it was very famous for the 'Star Fort' tunnels. However, now these tunnels are closed and finding them in the absence of maps is a very complicated task.
Glory of garbhunjan cannon The 'Garb Gunjan' cannon, placed on the Bhim Burj of the fort, used to deliver the sixes of enemies with its huge size and firepower. Even today, this cannon is kept here, but at present it has become a mere object of demonstration. It is said that when this cannon used to move, its dreadful roar caused a chime in the abdomen. That is why it was named 'Garbhunjan'. In the sixteenth century this cannon was many times buzzing. A spectacular panoramic view of Bundi can now be seen from the Bhim Burj. Also, this cannon placed on the Bhim Burj from every corner of Bundi is seen standing proudly narrating the story of history. Reservoir fortress
Chauhangarh is famous for its huge reservoirs. Having a reservoir in the premises of the fort at such a height enhances the beauty of the fort. This is an excellent example of the water harvesting system adopted at that time. Rain water in these reservoirs was kept irrigated and water was used for the needs of common residents in times of crisis. Due to the rocky base of the reservoirs, water used to be collected here throughout the year. Rani Mahal is a small and beautiful palace in the premises of the fort, which used to house the queens and girlfriends of the kings. This beautiful palace is recognized due to its magnificent mural painting and glass work on the windows. In the absence of proper maintenance, the colors of the glass have started to fade. There is also the dargah of Miran Sabah in the fort premises. Miran Saheb was a loyal warlord in the Bundi fort and in an encounter he sacrificed his life to protect the fort, this dargah was built in his memory.
Prithviraj Chauhan's memorial The memorial of Prithviraj Chauhan, the most powerful Rajput king of Hadauti area, is also on the way to the fort. This memorial was built to honor the valor of Chauhan Raj till long. This monument can be seen seven days a week from 7 to 9 am.

History of Taragarh
This magnificent fortress, standing like a crown of the city to guard Bundi, was called the jewel of Rajasthan by Colonel James Tod, History Accountant of Rajasthan. The city of Bundi was founded in 1341 by Raj Deva of Hada Chauhan Rajput clan. After this, various rulers ruled Bundi and Taragarh. In the sixteenth century several construction works were done in Taragarh. After its construction, many fortifications and development works were done in this fort continuously for 200 years, due to which this fort was spread. Compared to other forts of Rajasthan, this fort does not see any significant influence of Mughal architecture. This fort is made of typical Rajput architecture and building art. The tops and domes of the bastions and palaces, roofs, temple pavilions, jagamohans, pillars etc. are unequaled and rare examples of the Khalis Rajput style. Elephants and lotus flowers depicted in architecture in many places symbolize Rajput architecture. There is another special thing that sets this fort apart from other fortifications of Rajasthan. Most of the fortifications of Rajasthan are made of yellow sandstone. While sandstone has been used partially in the construction of this fort. Intricate organization-colored green serpentine stones being excavated in the local area have been used. Although this stone is not known for intricate carving, but historians and architectural experts are also surprised to see this stone carving in Taragarh fort. Citadel murals are also very effective.

Charming beauty
The huge elephant pair on the elephant gate of the palace also attracts tourists. Other attractions of the fort are the Chattar Mahal, the beauty of this palace built in 1660 is amazing. Apart from this, the Chitrashala, Hanging Udyan and Tornadwar Gallery are also special here. They were built between 1748 and 1770. The Rajput painting style murals at these places are very attractive. These paintings depicting religious rituals, hunting and royal entertainment are historical documents.

How to reach Taragarh Fort
To reach Taragarh one can travel by bus from Kota. Bundi is situated on the National Highway number 12 between Jaipur and Kota. The route from Kota to Bundi is just one hour and buses run from Kota to Bundi every five minutes. Buses also ply from Jaipur to Bundi and the journey is seven to eight hours long.










No comments:

Post a Comment