Sunday, June 7, 2020

जालौर दुर्ग(Jalor Fort)


जालौर दुर्ग


जय माताजी🙏🙏🙏

 कहावत – 
“” आभ फटै, घर ऊलटै, कटै बगतरां कोर’ !
सीस पड़ै, धड़ तड़फड़ै, जद छुटै जालौर”” !!

जालौर का किला पश्चिमी राजस्थान के सबसे प्राचीन और सुदृढ़  दुर्गो में गिना जाता है ! यह सुकड़ी नदी के दाहिने किनारे मारवाड़ की पूर्व राजधानी जोधपुर से लगभग 75 मील दक्षिण में अवस्थित है!

प्राचीन नाम – जाबालिपुर, जालहूर (प्राचीन साहित्य व शिलालेखों के अनुसार)

 निर्माण – इस दुर्ग के निर्माण को लेकर विभिन्न विद्वानों में मतभेद है जिसमें डॉ. दशरथ शर्मा के अनुसार निर्माण नागभट्ट प्रथम ने करवाया !




इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा के अनुसार जालौर दुर्ग निर्माता परमार वंश के शासकों को माना है !
  जालौर दुर्ग का संपूर्ण विस्तृत वर्णन 
 प्राचीन साहित्य और शिलालेखों में इस दुर्ग को जाबालिपुर, जालहूर आदि नामों से अभिहित किया है !
जनश्रुति है कि इसका एक नाम जालंधर भी था जिस विशाल पर्वत शिखर पर यह प्राचीन किला बना है उसे सोनगिरी (स्वर्णगिरि) कनकाचल तथा किले को सोनगढ़ अथवा सोनलगढ़ कहा गया है !
यहां से प्रारंभ होने के कारण ही चौहानों की एक शाखा “सोनगरा” उपनाम से लोक प्रसिद्ध हुई है!
जालौर एक प्राचीन नगर है , ज्ञात इतिहास के अनुसार जालौर और उसका निकटवर्ती इलाका गुर्जर देश का एक भाग था तथा यहां पर प्रतिहार शासकों का वर्चस्व था ! प्रतिहारों के शासनकाल (750 – 1018 ई.) में जालौर एक समृद्धिशाली नगर था!
प्रतिहार नरेश वत्सराज के शासनकाल में 778 ई. में जैन आचार्य उद्योतन सूरी ने जालौर में अपने प्रसिद्ध ग्रंथ कुवलयमाला की रचना की!

 डॉ. दशरथ शर्मा के अनुसार प्रतिहार नरेश नागभट्ट प्रथम ने जालौर में अपनी राजधानी स्थापित की ! उसने (नागपुर प्रथम) ही संभवत: जालौर के इस सुदृढ़ ऐतिहासिक दुर्ग का निर्माण करवाया!
नागभट्ट प्रथम का कथन –
 प्रतिहारों के पश्चात जालौर पर परमारो (पंवारों) का शासन स्थापित हुआ!
इतिहासकार डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने  परमारों को जालौर दुर्ग का निर्माता या संस्थापक माना है!
 परंतु ऐतिहासिक साक्ष्य इस संभावना की ओर संकेत करते हैं कि उन्होंने पहले से विद्यमान व प्रतिहारों द्वारा निर्मित दुर्ग का जीर्णोद्वार या विस्तार करवाया था !




जालौर दुर्ग के तोपखाने से परमार राजा विशल का एक शिलालेख मिला है , जिसमें उसके पूर्ववर्ती परमार राजाओं का नामोल्लेख है!
 विक्रम संवत 1174 (1118 ई.) के शिलालेख में राजा विशल की रानी मेलरदेवी द्वारा सिंधु राजेश्वर के मंदिर पर स्वर्ण कलश चढ़ाने का उल्लेख है !
 जालौर दुर्ग पर विभिन्न कालों में प्रतिहार, परमार, चालूक्य (सोलंकी ), चौहान, राठौड़ , इत्यादि राजपूत राजवंशो ने शासन किया !  वही इस दुर्ग पर दिल्ली के मुस्लिम सुल्तानो,  और मुग़ल बादशाहों तथा अन्य मुस्लिम वंशो का भी अधिकार रहा!
 विशेषकर जालौर के किले के साथ सोनगरा चौहानों की वीरता , शौर्य और बलिदान के जो रोमांचक आख्यान जुड़े हैं वह इतिहास के स्वर्णाक्षरों में उल्लेख करने योग्य है !

नाडोल के चौहानवंशीय युवराज कीर्तिपाल ने जालौर पर अधिकार कर परमारो का वर्चस्व सदा के लिए समाप्त कर दिया ! इस प्रकार कीर्तिपाल  चौहानों की जालौर शाखा का संस्थापक था!
सुंधा पर्वत अभिलेख (वि. सं. 1319) में कीर्तिपाल के लिए “”राजेश्वर”” शब्द का प्रयोग हुआ है,  जो उसकी महत  उपलब्धियों के अनुरूप उचित लगता है!
 कीर्तिपाल के वंशज जालौर के किले सोनलगढ़ व उसकी सोनगिरी पर्वतमाला के का नाम से “”सोनगरे”” चौहान कहलाए तथा बहुत वीर और प्रतापी हुए!




सोनगरो की मारवाड़ में अनेक शाखाएं फैलीं जिनमें नाडोल, मंडोर, बाहड़मेर (बाड़मेर), श्रीमाल (भीनमाल), सत्यपुर (सांचौर) इत्यादि प्रमुख और उल्लेखनीय है !
 सोनगरे चौहानों ने परमारों से किरातकूप (किराडू) भी छीन लिया!
सोनगिरी पर्वतमाला पर बना जालौर का किला गिरी दुर्ग  (पहाड़ी दुर्ग) है
सुंधा पर्वत शिलालेख से पता चलता है कि समर सिंह ने जालौर के कनकाचल अथवा स्वर्णगिरी को चतुर्दिक विशाल और उन्नत प्राचीर से सुरक्षित किया है!

जालौर के किले की दुर्जेय स्थिति को देखकर “ताज उल मासिर” का लेखक हसन निजामी उस पर मुग्ध हो गया !
 उसने लिखा है कि जालौर बहुत ही शक्तिशाली अजेय दुर्ग है जिसके द्वार कभी भी किसी विजेता द्वारा नहीं खोले गए चाहे कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो!
जालौर के किले को दूर्भेद्य रुप प्रदान करने वाला समर सिंह एक विजेता और निर्माता होने के साथ ही कुशल कूटनीतिज्ञ भी था उसने गुजरात के शक्तिशाली चालुक्य नरेश भीमदेव द्वितीय के साथ अपनी राजकुमारी लीला देवी का विवाह कर दिया!

सुंधा अभिलेख में समर सिंह की कला के सरंक्षक और विद्वानों के आश्रयदाता के रुप में महती प्रशंसा की गई है !
समर सिंह का उत्तराधिकारी उदय सिंह जालोर की सोनगरा चौहान शाखा का सबसे पराक्रमी और यशस्वी शासक हुआ है!
उसने अनेक विजय अभियानों के द्वारा न केवल सुदूर प्रदेशों तक अपने राज्य का विस्तार किया अपितु गुलाम वंश के शक्तिशाली सुल्तान इल्तुतमिश का भी सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया!
सुंधा शिलालेख में उदय सिंह को तुर्को का मान मर्दन करने वाला कहा गया है!
इतिहासकार डॉ. दशरथ शर्मा ने उदयसिंह को जालोर की सोनगरा चौहान शाखा का सर्वाधिक योग्य और प्रतापी शासक कहां है! 
वह लिखते हैं कि जिस समय शक्तिशाली मुस्लिम आक्रमणों के सामने अन्य हिंदू राज्य ताश के पत्तों की तरह बिखर रहे थे और सपादलक्ष व नाडोल के चौहान राज्य नेस्तनाबूद हो गए थे,  उनसे लगभग 25 वर्ष पहले उद्भुत जालौर राज्य विपरीत परिस्थितियों में भी गौरव की ओर अग्रसर था ! उदय सिंह स्वयं कला और साहित्य का मर्मज्ञ व विद्वानों का आश्रयदाता था ! उसका मंत्री “यशोवीर” भी बहुत विद्वान था!




सारत: – जालौर उदय सिंह के शासनकाल में अपना विस्तार और वैभव की पराकाष्ठा पर पहुंचा!
 दिल्ली के सर्वाधिक शक्तिशाली और साम्राज्यवादी सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के ने रणथंबोर और चित्तौड़ विजय के बाद मारवाड़ को अपने आक्रमणों का लक्ष्य बनाया!
 जालोर पर आक्रमण उसके आक्रमण का एक प्रमुख कारण यह भी था कि सन् 1298 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने  गुजरात विजय करने और वहां के प्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर को ध्वस्त करने के लिए अपने सेनानायकों उलुग खां और नुसरत खां के अधीन जो विशाल सेना वहां भेजी उसे वीर कान्हड़देव (तब युवराज) ने अपने जालौर राज्य से होकर गुजरने की अनुमति नहीं दी और फलत: उसे मेवाड़ होकर जाना पड़ा इतना ही नहीं गुजरात अभियान से जालौर होकर वापस लौटती शाही सेना को कान्हड़देव के सैनिकों ने परेशान किया तथा बहुत सारा लूट का माल और सोमनाथ की खंडित प्रतिमा के हिस्से मुस्लिम सैनिकों से छीन लिए !

अंत: अलाउद्दीन खिलजी की साम्राज्यवादी महत्वकांक्षा और कान्हड़देव को सबक सिखाने की इच्छा उसके जालौर आक्रमण का कारण बनी!
अलाउद्दीन ने पहले ही सिवाना के किले पर जोरदार आक्रमण कर उस पर अपना अधिकार स्थापित किया जहां कान्हड़देव का भतीजा सातल देव दूर्ग की रक्षा करता हुआ अपने सहयोगी योद्धाओं सहित वीरगति को प्राप्त हुआ!
तदनन्तर अलाउद्दीन ने जालौर दुर्ग को अपना लक्ष्य बनाया उसने अपने सर्वाधिक योग्य सेनापति कमालुद्दीन गुर्ग को जालोर अभियान की बागडोर सौंपी खिलजी सेना ने जालौर के किले को चारों ओर से घेर लिया!
जालौर का यह घेरा लम्बे अरसे तक चला!

कान्हड़देव प्रबंध के अनुसार कमालुद्दीन ने किले की एक ऐसी घेराबंदी की कि ना तो कोई व्यक्ति भीतर से बाहर आ सकता था और ना ही किले के भीतर रसद या शस्त्र आदि पहुंचना संभव था, दीर्घकालिक घेरे के कारण किले के भीतर खाद्य सामग्री का अभाव होता चला गया ! संकट की इस घड़ी में बिका दहिया राजपूत सरदार ने विश्वासघात किया और शत्रु सेना को किले के भीतर पहुंचने का गुप्त मार्ग बता दिया !
वीरशिरोमणि कान्हड़देव ने अपने राजकुमार वीरमदेव और विश्वस्त योद्धाओं के साथ अलाउद्दीन की सेना के साथ घमासान युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त की और किले के भीतर सैकड़ों ललनाओ ने जौहर का अनुष्ठान किया! तब कहीं जाकर 1311-12 ई. में लगभग अलाउद्दीन खिलजी का जालौर पर अधिकार हों सका!

 कवि पद्मनाभ के ऐतिहासिक काव्य “कान्हड़देव प्रबंध” तथा “वीरमदेव सोनगरा री बात” नामक कृतियों में जालौर के किले पर लड़े गये इस घमासान युद्ध का विस्तृत और रोमांचक वर्णन हुआ है!
यथा :-
ऊपरि थकी ढीकुली ढालइ, लोढीगड़ा विछूटइ !
हाथी घोडउ आडइ आवइ, तेहमरइ अणषूटइ!!
यंत्र मगरती गोलानाषइ, द्रू सांधि सूत्रहार!
जिहां पडइ तिहां तरुअर भांजइ, पडतउ करहि संहार!!

कान्हड़देव के साथ ही जालौर से अतुल पराक्रमी और यशस्वी सोनगरा चौहानों का वर्चस्व समाप्त हो गया ! इसके साथ ही वीरता और शौर्य के एक स्वर्णिम युग का अवसान हो गया!
तदनन्तर जालौर पर मुसलमानों का आधिपत्य रहा!  जोधपुर के राव गांगा के शासनकाल में राठौड़ो ने जालौर पर चढ़ाई की!

 जालौर के अधिपति मलिक अलीशेर खां ने चार दिन तक राठौड़ सेना का मुकाबला किया तथा यह आक्रमण विफल हो गया । तत्पश्चात राव मालदेव ने जालोर पर आक्रमण कर उस पर अपना अधिकार कर लिया । लेकिन मालदेव की मृत्यु होते ही बिहारी पठानो ने जालौर राठौड़ों से छीन लिया । इसके बाद जोधपुर के महाराजा गज सिंह ने 1607 ई.  के लगभग जालोर पर आक्रमण कर उसे बिहारी पठानों से जीत लिया । तत्पश्चात जब जोधपुर की गद्दी के लिए भीमसिंह और मानसिंह के बीच उत्तराधिकार का संघर्ष चला तब अपने संकट काल में महाराजा मानसिंह ने इसी दुर्ग में आश्रय लिया था तथा अपने बड़े भाई व जोधपुर के महाराजा भीमसिंह के इस का कि वे जालौर का दुर्ग खाली कर जोधपुर आ जाए, उन्होंने जो वीरोचित उत्तर दिया। वह लोक में आज भी प्रेरक वचन के रूप में याद दिलाता है।

आभ फटै घर ऊलटै कटै बगतरां कोर’
सीस पड़ै धड़ तड़फड़ै जद छुटै जालौर””

 मारवाड़ और गुजरात की सीमा पर बने जालौर दुर्ग को अपनी सामरिक स्थिति के कारण प्राचीन काल से ही आक्रांताओं के भीषण प्रहार झेलने पड़े । विभिन्न कालों में इस किले पर दुर्धर्ष एवं घमासान युद्ध लड़े गए किंतु अपने दुर्भेद्य स्वरूप और सुंदृढ़ता के कारण कभी भी किले का आसानी से पतन नहीं हुआ!




विशेषता:-
 स्वर्णगिरी पर्वतमाला पर बना जालौर का किला गिरी दुर्ग का सुंदर उदाहरण है ! क्षेत्रफल की दृष्टि से 800 सौ गज लंबा और 400 गज चौड़ा है ! आसपास की भूमि से यह लगभग 1200 फीट ऊंचा है ! जालौर दुर्ग का स्थापत्य की प्रमुख विशेषता यह है कि इसकी उन्नत प्राचीर ने अपनी विशाल बुर्जों सहित समुचि पर्वतमाला को अपने मे यो समाविष्ट कर लिया है कि इससे किले की सही स्थिति और रचना के बारे में बाहर से कुछ पता नहीं चलता , जिससे शत्रु भ्रम में पड़ जाता है !

जालौर दुर्ग के भीतर जाने के लिए मुख्य मार्ग शहर के भीतर से है, जो टेढ़ा-मेड़ा व घुमावदार हैं! तथा लगभग 5 km. लम्बा है ! सर्पिलाकार प्राचीर से गुम्फित इस मार्ग में  “सूरजपोल” किले का प्रथम प्रवेश द्वार है ! जिसकी धनुषाकार छत का स्थापत्य अपने से शिल्प और सौंदर्य के साथ सामरिक सुरक्षा की आवश्यकता का सुंदर समावेश किए हुए हैं ! यह प्रवेश द्वार एक सुदृढ़ दीवार से इस प्रकार आवृत है कि आक्रांता शत्रु प्रवेश द्वार को अपना निशाना नहीं बना सकें ! इसके पार्श्व में एक विशाल बुर्ज बनी है ! दुर्ग का दूसरा प्रवेश द्वार “ध्रुवपोल” तीसरा “चांदपोल” और चतुर्थ “सिरेपोल” भी बहुत मजबूत और विशाल है!

दुर्ग के ऐतिहासिक स्थल :-
 जालौर दुर्ग के ऐतिहासिक स्थलों में मानसिंह के महल और झरोखें, दो मंजिला रानी महल, प्राचीन जैन मंदिर, चामुंडा माता और जोगमाया के मंदिर, दहियो की पोल, संत मलिकशाह की दरगाह प्रमुख और उल्लेखनीय है!
 किले में स्थित परमार कालीन कीर्तिस्तंभ कला का उत्कृष्ट नमूना हैं !

जालौर के किले का तोपखाना बहुत सुंदर और आकर्षक है , जिसके विषय में कहा जाता है कि यह परमार राजा भोज द्वारा निर्मित संस्कृत पाठशाला थी जो कालांतर में दुर्ग के मुस्लिम अधिपतियों द्वारा मस्जिद में परिवर्तित कर दी गई तथा तोपखाना मस्जिद कहलाने लगा !
अजमेर में निर्मित भव्य संस्कृत पाठशाला की भी वही गति हुई तथा सम्प्रति वह भी अढा़ई दिन का झोपड़ा कहलाती है!

 पहाड़ी के शिखर भाग पर निर्मित वीरमदेव की चौकी उस अप्रतिम वीर की यशोगाथा को संजोए हुए हैं
किले के भीतर जाबालिकुंड,  सोहनबाव सहित अनेक जलाश्य और विशाल बावड़ियां जलापूर्ति के मुख्य स्रोत है!
दुर्ग के भीतर अन्नभंडार, सैनिकों के आवास गृह, अश्वशाला इत्यादि भवन भी बने हुए हैं !
कान्हड़देव प्रबंध में जालौर के इस प्राचीन किले को एक विषम और दुर्भेद्य दुर्ग बताते हुए उसकी तुलना चित्तोड़ चंपानेर ग्वालियर आदि प्रसिद्ध दुर्गों से की गई है!

यथा कथन:-
कणयाचल जगि जाणीइ, ठांम तणंउ जावालि!
तहीं लगइ जगिजालहुर, जण जंपइ इण कालि!!
विषम दुर्ग सुणिइ घणा, इसिउ नहीं आसेर!
जिसउ जालहुर जाणीइ, तिसउ नहीं ग्वालेर!!
चित्रकूट तिसंउ नहीं, तिसउ नहीं चांपानेर!
जिसउ जालहुर जाणीइ तिसहु नहीं भांमेर!!

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English Translation:-

Jalor Fort



Jai Mataji

The Fort of Jalore is counted among the oldest and fortified fortifications in western Rajasthan! It is located about 75 miles south of Jodhpur, the former capital of Marwar, on the right bank of the Sukri River!

Ancient name - Jabalipur, Jalhur (according to ancient literature and inscriptions)

 Construction - There is a difference of opinion among the various scholars regarding the construction of this fort, in which Nagabhatta I, according to Dr. Dashrath Sharma, got the construction done!

According to historian Gaurishankar Hirachand Ojha, the makers of Jalore Fort have considered the rulers of the Paramara dynasty!
  Complete detailed description of Jalore Fort
 In ancient literature and inscriptions, this fort has been named by the names of Jabalipur, Jallhur etc.
It is known that Jalandhar also had a name, the huge mountain peak on which this ancient fort is built, it is called Sonagiri (Swarnagiri) Kanakachal and the fort is called Songarh or Sonalgarh!
Due to its origin from here, a branch of Chauhans has become famous with the nickname "Sonagra"!
Jalore is an ancient city, according to known history, Jalore and its adjacent area was a part of Gurjar country and was dominated by Pratihara rulers! Jalore was a prosperous city during the reign of Pratiharas (750 - 1018 AD).
In the reign of Pratihara Naresh Vatsaraja in 778 AD Jain Acharya Udyotan Suri composed his famous book Kuvalayamala in Jalore!

 According to Dr. Dasharatha Sharma, Pratihara Naresh Nagabhatta I established his capital at Jalore. He (Nagpur first) probably built this strong historical fort of Jalore.
Narration of Nagabhatta I -
 After the Pratiharas, the rule of Parmaro (Panwaras) was established over Jalore.
Historian Dr. Gaurishankar Hirachand Ojha has considered the Paramaras as the creators or founders of the Jalore Fort.
 But historical evidence indicates the possibility that they had already renovated or expanded the fort built by the existing and Pratiharas!

The artillery of the Jalore fort has an inscription of the Paramara king Vishal, which bears the name of his predecessor Paramara kings!
 The inscription of Vikram Samvat 1174 (1118 AD) mentions the offering of a golden urn to the temple of Indus Rajeshwar by Queen Melaradevi of King Vishal!
 The Jalore fort was ruled by the Rajput dynasties of Pratihara, Parmar, Chalukya (Solanki), Chauhan, Rathore, etc. in various periods. The same Muslim fortress of Delhi, and Mughal emperors and other Muslim dynasties also held this fort.
 The thrilling narratives of valor, valor and sacrifice of the Sonagara Chauhans, especially with the fort of Jalore, are worth mentioning in the golden letters of history!

Kauratipal, the Chauhan dynasty of Nadol, took over Jalore and ended the supremacy of Parmaro forever! Thus Kirtipal was the founder of the Jalore branch of Chauhans!
The term "Rajeshwar" has been used for Kirtipal in the Sundha Parbat inscription (v. No. 1319), which seems appropriate according to his great achievements!
 The descendants of Kirtipal were called "Songere" Chauhan by the name of Fort Sonalgarh of Jalore and its Sonagiri ranges and became very brave and majestic!

Many branches spread in Marwar of Sonagaro, among which Nadol, Mandore, Bahadmer (Barmer), Srimal (Bhinmal), Satyapur (Sanchore) etc. are prominent and notable!
 Sonegre Chauhans also snatched the Kirtakup (Kiradu) from the Paramaras!
The fort of Jalore built on the Sonegiri ranges is Giri Durg (hill fort).
The Sundha mountain inscription shows that Samar Singh protected Kanakachal or Swarnagiri of Jalore with a huge and advanced ramparts!

Seeing the formidable condition of the fort of Jalore, the author of "Taj ul Masir", Hassan Nizami, was enchanted by him!
 He has written that Jalore is a very powerful invincible fort, whose gates were never opened by any conqueror, no matter how powerful!
Samar Singh, who gave the impoverished appearance of the fort of Jalore, was a winner and builder, as well as a skilled diplomat, he married his princess Leela Devi to the mighty Chalukya King Bhimdev II of Gujarat!

In the inscription, Samar Singh has been praised greatly as a patron of art and as a harbinger of scholars!
The successor of Samar Singh, Uday Singh has become the most powerful and famous ruler of the Sonagara Chauhan branch of Jalore!
Through numerous conquests, he not only expanded his kingdom to the far-flung territories, but also successfully resisted the powerful Sultan Iltutmish of the slave dynasty!
Uday Singh has been described in the inscription as a murderer of Turko!
Historian Dr. Dasharatha Sharma told Uday Singh, where is the most capable and powerful ruler of Sonegra Chauhan branch of Jalore!
He writes that at the time when the powerful Muslim invasions were disintegrating in the face of other Hindu kingdoms, and the Chauhan kingdom of Sapadalaksha and Nadol became decimated, the Jalore state, arising about 25 years before that, led to glory even under adverse circumstances. Was! Uday Singh himself was a penetrator of art and literature and a harbinger of scholars! His minister "Yashovir" was also a great scholar!

In essence - Jalore reached its heights of expansion and glory during the reign of Uday Singh!
 Alauddin Khilji, the most powerful and imperialist Sultan of Delhi, made Marwar the target of his invasions after the conquests of Ranthambore and Chittor!
 The invasion of Jalore was also a major reason for his invasion that in 1298 AD, Alauddin Khilji sent a large army under his generals Ulugh Khan and Nusrat Khan to conquer Gujarat and demolish the famous Somnath temple there. Veer Kanhardev (then crown prince) did not allow his kingdom to pass through Jalore and consequently he had to go through Mewar. Not only that, the royal army returning from Jalore to Jalore was disturbed by Kanhaddev's soldiers and a lot of loot. And snatched away the fragmented statue of Somnath from Muslim soldiers!

Ultimately, the imperial ambition of Alauddin Khilji and his desire to teach a lesson to Kanhaddev led to his Jalore invasion!
Alauddin had already vigorously attacked the fort of Sewana and established his authority over it, where Kanhardev's nephew Satal Dev, along with his fellow warriors, protecting Viragati got to Durga!
Subsequently, Alauddin made Jalore Durg his target. He handed over the reins of Jalore expedition to his most capable commander Kamaluddin Gurg, the Khilji army surrounded the fort of Jalore.
This enclosure of Jalore lasted for a long time!

According to Kanhaddev management, Kamaluddin laid such a siege of the fort that neither a person could come out from within nor was it possible to reach the fort with logistics or weapons, etc. Due to long-term encirclement, there was a lack of food items within the fort. Gone ! In this hour of crisis, the Dahiya Rajput Sardar betrayed and told the enemy army the secret path to reach inside the fort!
Veerashiromani Kanhaddev, with his prince Veeramdev and trusted warriors, fought in a fierce battle with Alauddin's army, and hundreds of lalnas performed jauhar rituals within the fort! Then somewhere in 1311-12 AD, almost Alauddin Khilji could have authority over Jalore!

 The poetic Padmanabha's historical poems, "Kanhardev Prabandha" and "Veeramdev Sonagara Ri Baat" have detailed and exciting description of this fierce battle fought at the fort of Jalore.

Along with Kanhaddev, the domination of Atul mighty and famous Sonagara Chauhans from Jalore ended. With this, a golden age of valor and valor expired.
Subsequently, Muslims dominated Jalore. During the reign of Rao Ganga of Jodhpur, Rathodors invaded Jalore.

 Malik Alisher Khan, the governor of Jalore, fought the Rathore army for four days and this attack failed. After that Rao Maldev attacked Jalore and took possession of it. But after Maldev's death, Bihari Pathano snatched it from Jalore Rathore. After this, Maharaja Gaj Singh of Jodhpur attacked Jalore around 1607 AD and conquered it from the Bihari Pathans. After that when the succession struggle between Bhimsingh and Mansingh for the throne of Jodhpur took place, then in his distress, Maharaja Mansingh took shelter in this fort and that of his elder brother and Maharaja Bhimsingh of Jodhpur, that he should vacate the fort of Jalore. Come, the heroic answer he gave. He reminds people even today as a motivational word.

Jalore fort built on the border of Marwar and Gujarat, due to its strategic position, has suffered severe attacks from invaders since ancient times. In various periods bad and fierce battles were fought at this fort, but the fort never fell easily due to its impregnable nature and beauty!

Specialty:-
 The fort of Jalore built on the Swarnagiri ranges is a beautiful example of the Giri fort. In terms of area is 800 hundred yards long and 400 yards wide! It is about 1200 feet high from the surrounding land! The main feature of the architecture of Jalore Fort is that its advanced ramparts have incorporated the entire ranges including their huge bastions into themselves so that it does not reveal anything about the exact position and construction of the fort from outside, which makes the enemy in confusion It falls

The main route to get inside the Jalore Fort is from within the city, which are zigzag and curved! And about 5 km. Is long The "Surajpole" is the first entrance to the fort in this passage, enchanted by the spiral ramparts! Whose arched roof architecture has beautifully incorporated the need for strategic protection with craft and beauty! This entrance is covered with a strong wall in such a way that the invading enemies cannot target the entrance! A huge turret is built on its side! The second entrance of the fort is the "Dhruvpole", the third "Chandpole" and the fourth "Sirepole" is also very strong and huge!

Durg historical sites: -
 The historical sites of Jalore Fort include Mansingh's palace and Jharokhon, two-storey Rani Mahal, ancient Jain temples, Chamunda Mata and Jogmaya temples, Dahiyo ki Pol, Saint Malik Shah's Dargah are prominent and notable!
 The Parmar Carpets located in the fort are excellent specimens of Kirtistambha art!

The artillery of the fort of Jalore is very beautiful and attractive, about which it is said that it was a Sanskrit school built by Parmar Raja Bhoj which was later converted into a mosque by the Muslim overlords of the fort and started to be called Topkhana Masjid!
The grand Sanskrit school built in Ajmer also got the same pace and at present it is also called the half day hut!

 Veeram Dev's outpost built on the top of the hill is decorated with the Yashogatha of that great hero.
Many water reservoirs and huge stepwells are the main sources of water supply, including the Jabalikund, Sohanbavo within the fort!
Within the fort, there are also buildings like granaries, soldiers' houses, horse sheds etc.
In Kanhardev Prabandha, this ancient fort of Jalore has been compared to the famous fortifications like Chittor Champaner Gwalior, while describing this ancient fort as an anomalous and impregnable fort!















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