Saturday, June 6, 2020

जूनागढ़ किला-बीकानेर(Junagadh Fort-Bikaner)


जूनागढ़ किला-बीकानेर


जय माताजी
जूनागढ़ किले का इतिहास |
जूनागढ़ किला –
भारत के राजस्थान राज्य के बीकानेर शहर में है। इस किले को वास्तव में चिंतामणि किले और बीकानेर किले – बीकानेर फोर्ट के नाम से जाना जाता है और 20 वी शताब्दी के प्रारंभ में इसका नाम बदलकर जूनागढ़ रखा गया था क्योकि 20 वी शताब्दी में किले में रहने वाला परिवार लालगढ़ महल में स्थानांतरित हुआ था।
यह किला राजस्थान के उन प्रमुख किलो में शामिल है जो पहाड़ की ऊंचाई पर नही बने है। वर्तमान बीकानेर शहर किले के आस-पास ही विकसित हुआ है।




जूनागढ़ किले का इतिहास –
किले का निर्माण बीकानेर के शासक राजा राय सिंह के प्रधान मंत्री करण चंद की निगरानी में किया गया था, राजा राय सिंह ने ई•सन् 1571 से 1611 के बीच बीकानेर पर शासन किया था।
किले की दीवारों और खाई का निर्माणकार्य 1589 में शुरू हुआ था और 1594 में पूरा हुआ था। इन्हें शहर के वास्तविक किले के बाहर ही बनाया गया है, सिटी सेंटर से 1.5 किलोमीटर की दुरी पर इन दीवारों और खाई का निर्माण किया गया था। जूनागढ़ किले के शेष भाग लक्ष्मी नारायण मंदिर के आस-पास बने हुए है।
इतिहासिक दस्तावेजो के अनुसार जूनागढ़ किले पर कई बार दुश्मनों ने आक्रमण किया गया था, लेकिन कभी इसे कोई हासिल नही कर सका सिर्फ कामरान मिर्ज़ा ने ही एक दिन के लिये इसे अपने नियंत्रण में रखा था।
कामरान मुग़ल बादशाह बाबर के दुसरे बेटे थे जिन्होंने 1534 में बीकानेर पर आक्रमण किया था, और इसके बाद बीकानेर पर राव जित सिंह का शासन था।


जूनागढ़ किले का इतिहास –
जूनागढ़ के प्राचीन शहर का नामकरण एक पुराने दुर्ग के नाम पर हुआ है। यह गिरनार पर्वत के समीप स्थित है। यहाँ पूर्व-हड़प्पा काल के स्थलों की खुदाई हुई है। इस शहर का निर्माण नौवीं शताब्दी में हुआ था।
यह चूड़ासमा राजपूतों की राजधानी थी। यह एक रियासत थी। गिरनार के रास्ते में एक गहरे रंग की बेसाल्ट चट्टान है, जिस पर तीन राजवंशों का प्रतिनिधित्व करने वाला शिलालेख अंकित है।
मौर्य शासक अशोक (लगभग 260-238 ई.पू.) रुद्रदामन (150 ई.) और स्कंदगुप्त (लगभग 455-467)। यहाँ 100-700 ई. के दौरान बौद्धों द्वारा बनाई गई गुफ़ाओं के साथ एक स्तूप भी है। शहर के निकट स्थित कई मंदिर और मस्जिदें इसके लंबे और जटिल इतिहास को उद्घाटित करते हैं।
यहाँ तीसरी शताब्दी ई.पू. की बौद्ध गुफ़ाएँ, पत्थर पर उत्कीर्णित सम्राट अशोक का आदेशपत्र और गिरनार पहाड़ की चोटियों पर कहीं-कहीं जैन मंदिर स्थित हैं। 15वीं शताब्दी तक राजपूतों का गढ़ रहे जूनागढ़ पर 1472 में गुजरात के महमूद बेगढ़ा ने क़ब्ज़ा कर लिया, जिन्होंने इसे मुस्तफ़ाबाद नाम दिया और यहाँ एक मस्जिद बनवाई, जो अब खंडहर हो चुकी है।




जूनागढ़ किला – Junagarh Fort आज भी गर्व से यह अपना इतिहास बयान करता है और कहता है कि मुझे कभी कोई शासक हरा नहीं पाया। कहते हैं कि इतिहास में सिर्फ एक बार किसी गैर शासक द्वारा इस भव्य किले पर कब्जा किए जाने के प्रयास का जिक्र होता है।
कहा जाता है कि मुगल शासक कामरान जूनागढ़ की गद्दी हथियाने और किले पर फतह करने में कामयाब हो गया था, लेकिन 24 घंटे के अंदर ही उसे सिंहासन छोड़ना पड़ा। इसके अलावा कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता कि जूनागढ़ को किसी शासक ने फतेह करने के मंसूबे बनाए हों और वह कामयाब हुआ हो।
बरसात को तरसते रेगिस्तानी राजस्थान, खासतौर पर उस पुराने दौर में जब बारिश राजस्थान के लिए त्योहार होती थी, उस दौर में राज्य के शाही किलो में बादल महल बनाकर बरसात का एहसास राजा-महाराजा किया करते थे।
जयपुर, नागौर किलों सहित अनेक किलों में बने बादल महल इसका उदाहरण हैं, लेकिन बीकानेर का जूनागढ़ किला खासतौर पर बने बादल महल के लिए काफी चर्चित है।
जूनागढ़ दुर्ग परिसर में खासी ऊंचाई पर बने इस भव्य महल को किले में सबसे ऊंचाई पर स्थित होने के कारण बादल महल कहा जाता है।
महल में पहुंचकर वाकई लगता है, जैसे आप आसमान के किसी बादल पर आ गए हों। नीले रंग के बादलों से सजी दीवारें बरखा की फुहारों का अहसास दिलाती हैं। यहां बहने वाली ताजा हवा पर्यटकों की सारी थकान छू कर देती है।
इतिहास इस पूरे Junagarh Fort से बहुत गहरी जड़ों तक जुड़ा है इसलिए सैलानी इसकी ओर बहुत आकर्षित होते हैं। यह किला पूरी तरह से थार रेगिस्तान के लाल बलुआ पत्थरों से बना है। हालांकि इसके भीतर संगमरमर का काम किया गया है। इस किले में देखने लायक कई शानदार चीजें हैं। यहां राजा की समृद्ध विरासत के साथ उनकी कई हवेलियां और कई मंदिर भी हैं।
यहां के कुछ महलों में ‘बादल महल’ सहित गंगा महल, फूल महल आदि शामिल हैं। इस किले में एक संग्रहालय भी है जिसमें ऐतिहासिक महत्व के कपड़े, चित्र और हथियार भी हैं। यह संग्रहालय सैलानियों के लिए राजस्थान के खास आकर्षणों में से एक है।




यहां आपको संस्कृत और फारसी में लिखी गई कई पांडुलिपियां भी मिल जाएंगी। जूनागढ़ किले के अंदर बना संग्रहालय बीकानेर और राजस्थान में सैलानियों के लिए सबसे बड़ा आकर्षण है। इस किला संग्रहालय में कुछ बहुत ही दुर्लभ चित्र, गहने, हथियार, पहले विश्वयुद्ध के बाइप्लेन आदि हैं।
इतिहासकारों के अनुसार इस दुर्ग के पाये की नींव 30 जनवरी 1589 को गुरुवार के दिन डाली गई थी। इसकी आधारशिला 17 फरवरी 1589 को रखी गई।
इसका निर्माण 17 जनवरी 1594 गुरुवार को पूरा हुआ। स्थापत्य, पुरातत्व व ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण इस किले के निर्माण में तुर्की की शैली अपनाई गई जिसमें दीवारें अंदर की तरफ झुकी हुई होती हैं। दुर्ग में निर्मित महल में दिल्ली, आगरा व लाहौर स्थिति महलों की भी झलक मिलती है।
दुर्ग चतुष्कोणीय आकार में है, जो 1078 गज की परिधि में निर्मित है तथा इसमें औसतन 40 फीट ऊंचाई तक के 37 बुर्ज हैं, जो चारों तरफ से दीवार से घिरे हुए हैं। इस दुर्ग के 2 प्रवेश द्वार हैं- करण प्रोल व चांद प्रोल। करण प्रोल पूर्व दिशा में बनी है जिसमें 4 द्वार हैं तथा चांद प्रोल पश्चिम दिशा में बनी है, जो एक मात्र द्वार ध्रुव प्रोल से संरक्षित है।
सभी प्रोलों का नामकरण बीकानेर के शाही परिवार के प्रमुख शासकों एवं राजकुमारों के नाम पर किया गया है। इनमें से कई प्रोल ऐसी हैं, जो दुर्ग को संरक्षित करती हैं। पुराने जमाने में कोई भी युद्घ तब तक जीता हुआ नहीं माना जाता था, जब तक कि वहां के दुर्ग पर विजय प्राप्त न कर ली जाती।




शत्रुओं को गहरी खाई को पार करना पड़ता था, उसके बाद मजबूत दीवारों को पार करना होता था, तब कहीं जाकर दुर्ग में प्रवेश करने के लिए प्रोलों को अपने कब्जे में लेना होता था। प्रोलों के दरवाजे बहुत ही भारी व मजबूत लकड़ी के बने हुए हैं। इसमें ठोस लोहे की भालेनुमा कीलें लगी हुई हैं।
जूनागढ़ किले और बीकानेर के पैलेस –
अनूप महल एक बहु-मंजिला ईमारत है, जो इतिहास में साम्राज्य का हेडक्वार्टर हुआ करता था. इसकी सीलिंग लकडियो से और कांच की सहायता से बनाई गयी है, साथ ही इसके निर्माण में इतालियन टाइल्स और लैटिस खिडकियों और बाल्कनी का उपयोग किया गया था। इस महल में सोने की पत्तियों से कुछ कलाकृतियाँ भी बनाई गयी है। इसे एक विशाल निर्माण भी माना जाता है।
फूल महल किले का सबसे पुराना भाग है जिसका निर्माण बीकानेर के राजा राय सिंह ने किया था, जिनका शासनकाल 1571 से 1668 तक था।
गंगा महल का निर्माण 20 वी शताब्दी में गंगा सिंह ने किया था जिन्होंने 1887 से 1943 तक 56 सालो तक शासन किया था, इस किले में एक विशाल दरबार हॉल है जिसे गंगा सिंह हॉल के नाम से भी जाना जाता है।
बीकानेरी हेवली बीकानेर शहर के अन्दर और बाहर दोनों जगहों पर है, बीकानेर की विशेष और प्रसिद्ध वास्तुकला का यह सुन्दर उदाहरण है।बीकानेर को देखने आये विस्देशी पर्यटक अल्डोस हक्सले ने कहा था की, “ये हवेलियाँ बीकानेर का गर्व है” ।
करण महल (पब्लिक ऑडियंस हॉल) का निर्माण करण सिंह ने 1680 C. में किया था, इसका निर्माण मुग़ल बादशाह औरंगजेब के खिलाफ जीत की ख़ुशी में किया गया था। इस महल के पास एक गार्डन का निर्माण भी किया गया है और राजस्थान के प्रसिद्ध और विशाल किलो में यह शामिल है। यह किला राजस्थान की इतिहासिक वास्तुकला को दर्शाता है।
किले की खिड़कियाँ रंगीन कांच की बनी हुई है और जटिलतापूर्वक चित्रित की हुई बाल्कनी का निर्माण लकडियो से किया गया है. बाद में राजस, अनूप सिंह और सूरत सिंह ने भी महल की मरम्मत करवाकर इसे चमकीला बनवाया, कांच लगवाए और लाल और सुनहरा पेंट भी लगवाया।
राजगद्दी वाले कक्ष में एक मजबूत आला भी बना हुआ है जिसका उपयोग सिंहासन के रूप में किया जाता है।
बादल महल, अनूप महल के अस्तित्व का ही एक भाग है. इसमें शेखावती दुन्द्लोद की पेंटिंग है जो बीकानेर के महाराजा को अलग-अलग पगड़ियो में सम्मान दे रहे है। इसमें नाख़ून, लकड़ी, तलवार और आरे पर खड़े लोगो की तस्वीरे भी लगी हुई है। महल की दीवारों पर हिन्दू भगवान श्री क्रिष्ण की तस्वीरे भी बनी हुई है।
चन्द्र महल किले का सबसे भव्य और शानदार कमरा है, सोने से बने देवी-देवताओ की कलाकृतियाँ और पेंटिंग लगी हुई है जिनमे बहुमूल्य रत्न भी जड़े हुए है। इस शाही बेडरूम में कांच को इस तरह से लगाया गया है की राजा अपने पलंग पर बैठे ही जो कोई भी उनके कमरे में प्रवेश कर रहा है उसे देख सकते है।
महाराजा राय सिंह ट्रस्ट –
महाराजा राय सिंह का निर्माण बीकानेर के शाही परिवार ने किया था। ताकि वें किले से संबंधित इतिहास की ज्यादा से ज्यादा जानकारी पर्यटकों को बता सके। इसके साथ ही इस ट्रस्ट की स्थापना करने का मुख्य उद्देश्य राज्य में शिक्षा, संस्कृति और लोगो का विकास करना था।
किला संग्रहालय –
किले के भीतर बने संग्रहालय को जूनागढ़ किला संग्रहालय का नाम दिया गया है जिसकी स्थापना 1961 में महाराजा डॉ. करनी सिंह ने “महाराजा राय सिंह ट्रस्ट” के नियंत्रण में की थी।
इस संग्रहालय में पर्शियन और मनुस्मृति, इतिहासिक पेंटिंग, ज्वेलरी, शाही वेशभूषा, शाही फरमान, गैलरी, रीती-रिवाज और माने जाने वालेभगवान की मूर्तियों का प्रदर्शन किया गया है। इस संग्रहालय में एक शस्त्रागार भी है जिसमे भूतकालीन युद्धों की यादो को सजोया गया है।

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English Translation:-


Junagadh Fort - Bikaner Jai Mataji 🙏🙏🙏
History of Junagadh Fort
Junagadh Fort - It is in Bikaner city of Rajasthan state of India. This fort is actually known as Chintamani Fort and Bikaner Fort - Bikaner Fort and was renamed Junagadh in the early 20th century as the family living in the fort shifted to Lalgarh Palace in the 20th century.
This fort is included in the main kilo of Rajasthan which is not built at the height of the mountain. The present Bikaner city has developed around the fort.
The fort was built under the supervision of Prime Minister Karan Chand of Bikaner ruler Raja Rai Singh, Raja Rai Singh ruled Bikaner between AD 1571 and 1611. The construction of the fort walls and moat began in 1589 and was completed in 1594. They have been built outside the original fort of the city, these walls and trenches were constructed at a distance of 1.5 km from the city center. The remaining part of Junagadh Fort is built around the Lakshmi Narayan Temple.
According to historical documents, Junagadh fort was attacked many times by enemies, but no one could ever get it, only Kamran Mirza kept it under his control for a day. Kamran was the second son of the Mughal emperor Babur who invaded Bikaner in 1534, and after this Bikaner was ruled by Rao Jit Singh. 5.28 A palace, temple and theater are built in the complex of the fort of Acker. These buildings reflect the mixed architectural art of the time. The ancient city of Junagadh is named after an old fort. It is located near the Girnar mountain. The sites of pre-Harappan period have been excavated here. The city was built in the ninth century. It was the capital of the Chudasama Rajputs. It was a princely state. On the way to Girnar is a dark basalt rock, inscribed representing three dynasties.
The Mauryan rulers Ashoka (circa 260–238 BCE) Rudradaman (150 AD) and Skandagupta (circa 455–467). There is also a stupa with caves made by Buddhists during 100–700 AD. Several temples and mosques located near the city reveal its long and complex history. Here in the third century BC Buddhist caves, Emperor Ashoka's edict engraved on the stone and Jain temples are located somewhere on the peaks of Girnar mountain. Junagadh, the fortress of Rajputs until the 15th century, was captured in 1472 by Mahmud Begada of Gujarat, who named it Mustafabad and built a mosque here, which is now in ruins.

Junagarh Fort - Junagarh Fort still proudly narrates its history and says that no ruler has ever defeated me. It is said that only once in history, there is mention of an attempt by a non-ruler to capture this grand fort.
Mughal ruler Kamran is said to have succeeded in seizing the throne of Junagadh and conquering the fort, but he had to leave the throne within 24 hours. Apart from this, there is no mention that Junagadh had any intention of defeating any ruler and he was successful.
Deserting Rajasthan in the rainy season, especially in the old era when it was a festival for the rainy Rajasthan, during that time, the King-Maharaja used to realize the rain by building a Badal Mahal in the royal fort of the state.
Badal Mahal built in many forts including Jaipur, Nagaur forts are examples of this, but the Junagadh fort of Bikaner is very popular for the specially built Badal Mahal. This magnificent palace built at a very high altitude in the Junagadh fort complex is called Badal Mahal because it is situated at the highest height in the fort.
Upon reaching the palace, it really feels like you have come to a cloud of the sky. The walls adorned with blue clouds give a feel of the showers of Barkha. The fresh air flowing here touches all the tiredness of the tourists.
History is associated with this entire Junagarh Fort to very deep roots, so the tourists are very attracted to it. This fort is entirely made of red sandstone of the Thar Desert. However, marble work has been done within it. There are many wonderful things to see in this fort. Here the king has a rich heritage with many havelis and many temples.
Some of the palaces here include Ganga Mahal, Phool Mahal etc. including 'Badal Mahal'. There is also a museum in this fort which also has clothes, paintings and weapons of historical importance. This museum is one of the special attractions of Rajasthan for tourists.
Here you will also find many manuscripts written in Sanskrit and Persian. The museum inside the Junagadh Fort is the biggest attraction for tourists in Bikaner and Rajasthan. This fort museum has some very rare paintings, jewelry, weapons, biplanes etc. of the first world war.
According to historians, the foundations of the finds of this fort were laid on Thursday, 30 January 1589. Its foundation stone was laid on 17 February 1589. Its construction was completed on Thursday 17 January 1594. Architectural, archaeological and historically significant, the Turkish style was adopted in the construction of this fort in which the walls are tilted inwards. Palaces in Delhi, Agra and Lahore are also reflected in the palace built in the fort.

The fort is in quadrangular shape, built in a circumference of 1078 yards and has 37 bastions on average 40 feet in height, surrounded by walls from all sides. This fort has 2 entrances - Karan Prowl and Moon Prowl. Karan Pral is made in the east direction with 4 gates and Chand Pral is made in the west direction, which is the only gate protected by Dhruva Pral.

All the proles are named after the principal rulers and princes of the royal family of Bikaner. Many of these proles are such that preserve the fort. In the old days, no war was considered to have been won until the fort was conquered there.
Enemies had to cross a deep moat, then cross strong walls, then proles had to be captured to enter the fort. The doors of the proles are made of very heavy and strong wood. It has solid iron speckled nails.

Junagadh Fort and Palace of Bikaner -
Anup Mahal is a multi-storey building, which used to be the headquarters of the empire in history. Its ceiling is made of wood and glass, as well as Italian tiles and lattice windows and balconies were used in its construction. Some artifacts have also been made in this palace with gold leaves. It is also considered a huge construction.

Phool Mahal is the oldest part of the fort which was built by Raja Rai Singh of Bikaner, who ruled from 1571 to 1668.

The Ganga Mahal was built in the 20th century by Ganga Singh, who ruled for 56 years from 1887 to 1943, the fort has a huge Durbar Hall, also known as Ganga Singh Hall.

Bikaneri Haveli is a beautiful example of Bikaner's special and famous architecture, both inside and outside the city of Bikaner. Aldos Huxley, a foreign tourist who visited Bikaner, said, "These havelis are the pride of Bikaner".

Karan Mahal (Public Audience Hall) was built by Karan Singh in 1680 C. It was built in the victory of victory against Mughal emperor Aurangzeb. A garden has also been constructed near this palace and it is included in the famous and huge kilo of Rajasthan. This fort reflects the historical architecture of Rajasthan.

The windows of the fort are made of colored glass and the intricately painted balconies have been made of wood. Later, Rajas, Anup Singh and Surat Singh also repaired the palace, made it shiny, got glass and also painted red and golden paint.

The throne room also has a strong niche that is used as a throne.
Badal Mahal is a part of the existence of Anup Mahal. It has a painting of Shekhawati Dundlod, who is paying respects to the Maharaja of Bikaner in different turban. It also has photographs of people standing on nails, wood, swords and saws. On the walls of the palace, there are also pictures of Hindu God Shri Krishna.

Chandra Mahal is the most magnificent and magnificent room of the fort, there are artifacts and paintings of deities made of gold, in which precious gems are also studded. In this royal bedroom, the glass is placed in such a way that the king can see whoever is entering his room as he sits on his bed.

Maharaja Rai Singh Trust -
Maharaja Rai Singh was built by the royal family of Bikaner. So that more and more information about the history of the fort can be conveyed to the tourists. Along with this, the main objective of establishing this trust was to develop education, culture and people in the state.

Fort Museum -
The museum inside the fort has been named Junagadh Fort Museum, which was established in 1961 by Maharaja Dr. Karni Singh under the control of "Maharaja Rai Singh Trust".
The museum exhibits Persian and Manusmriti, historical paintings, jewelery, royal costumes, royal decrees, galleries, customs and statues of the supposed Lord. The museum also has an armory in which memories of past wars have been decorated.















Friday, June 5, 2020

तारागढ़ दुर्ग : बूंदी(Taragarh Fort: Bundi)

तारागढ़ दुर्ग : बूंदी

जय माताजी🙏🙏🙏

अरावली की पहाड़ियों में स्थित सुरम्य किला
तारागढ़ दुर्ग अरावली की ऊंची पहाड़ियों में से एक नागपहाड़ी पर बना एक शानदार दुर्ग है। इसे बूंदी का किला भी कहते हैं। चौदहवीं सदी में बूंदी के संस्थापक राव देव हाड़ा ने इस विशाल और खूबसूरत दुर्ग का निर्माण कराया था। चौदहवीं सदी के मध्य में बना यह शानदार ऐतिहासिक दुर्ग आज भी बूंदी के पर्यटन को वैश्विक स्तर प्रदान करता है।
इस दुर्ग को बूंदी नरेश ने अपनी रियासत की शत्रुओं से पूरी तरह सुरक्षा के लिए ही निर्मित कराया था। इसलिए देश के सबसे सुरक्षित किलों में यह एक है। किले का निर्माण करने के लिए पहाड़ी के एक सिरे को पूरी तरह ढलवां बना दिया गया था और फिर इसे कगार पर बनाया गया। लंबे समय तक इस दुर्गम और दृढ सुरक्षित दुर्ग ने बूंदी रियासत की हिफाजत की।




जर्जर कर दिया समय ने
वक्त के थपेड़ों से जर्जर हालात तक पहुंच चुके इस भव्य दुर्ग का इतिहास बहुत रौशन है। भारत के दक्षिण पूर्व हाडौती इलाके में बना यह सबसे प्राचीन और विशालतम दुर्ग है। बूंदी को एक खास शहर बनाने में भी इस दुर्ग का खास योगदान है। तारागढ़ किले के कारण बूंदी एक पर्यटन शहर बन चुका है। हालांकि अपने जीवन के सात सौ वर्ष के इतिहास को देखने भोगने के बाद यह दुर्ग वृद्धावस्था में है लेकिन फिर भी अपने चारों ओर एक सफेद आभा लिए यह दुर्ग मिट्टी के ढेर पर पड़ी सोने की मोहर की तरह कीमती और मूल्यवान है।




तेरहवीं सदी का स्थापत्य
वर्तमान में हरी भरी पहाड़ियों और जंगली इलाके से घिरा यह दुर्ग मौजूदा दौर की उपेक्षा झेल रहा है। तारागढ़ दुर्ग कोटा से 39 किमी की दूरी पर स्थित है। इस शानदार दुर्ग का निर्माण 1354 में किया गया था। पहाड़ी की खड़ी ढलान पर बने इस दुर्ग में प्रवेश करने के लिए तीन विशाल द्वार बनाए गए हैं। इन्हें लक्ष्मी पोल, फूटा दरवाजा और गागुड़ी का फाटक के नाम से जाना जाता है। तेरहवीं चौदहवीं सदी में बने इन विशालकाय दरवाजों में अब तरेड़ें पड़ने लगी हैं और अंधिकांश भाग खंडहर हो गया है। इतिहास के सुनहरे दौर में यह ’स्टार फोर्ट’ सुरंगों के लिए बहुत प्रसिद्ध था। हालांकि अब ये सुरंगें बंद हो गई हैं और नक्शे के अभाव में इनकी खोज कर पाना अत्यंत जटिल काम है।
गर्भगुंजन तोप की महिमा
किले की भीम बुर्ज पर रखी ’गर्भ गुंजन’ तोप अपने विशाल आकार और मारकक्षमता से शत्रुओं के छक्के छुड़ाने का कार्य करती थी। आज भी यह तोप यहां रखी हुई है लेकिन वर्तमान में यह सिर्फ प्रदर्शन की वस्तु बनकर रह गई है। कहा जाता है जब यह तोप चलती थी तब इसकी भयावह गर्जना से उदर में झंकार हो जाती थी। इसीलिए इसका नाम ’गर्भगुंजन’ रखा गया। सोलहवीं सदी में यह तोप कई मर्तबा गूंजी थी। भीम बुर्ज से अब बूंदी का शानदार विहंगम दृश्य देखा जा सकता है। साथ ही बूंदी के हर कोने से भीम बुर्ज पर रखी यह तोप इतिहास की कहानी बयान करती गर्व से खड़ी दिखाई देती है।
जलाशयों का दुर्ग



यहां का चौहानगढ विशाल जलाशयों के कारण प्रसिद्ध है। इतनी ऊंचाई पर किले के परिसर में जलाशय होना दुर्ग की खूबसूरती को बढा देते हैं। यह उस समय अपनाई जाने वाली ’वॉटर हार्वेस्टिंग प्रणाली का बहुत ही उम्दा उदाहरण है। इन जलाशयों में वर्षा का जल सिंचित रखा जाता था और संकटकाल होने पर आम निवासियों की जरूरत के लिए पानी का इस्तेमाल किया जाता था। जलाशयों का आधार चट्टानी होने के कारण पानी सालभर यहां एकत्र रहता था। दुर्ग के परिसर में रानी महल एक छोटा और खूबसूरत महल है जो राजाओं की रानियों और प्रेमिकाओं के रहने के काम आता था। यह खूबसूरत महल अपनी शानदार भित्ति चित्रकला और खिडकियों पर कांच के कार्य के कारण पहचाना जाता है। उचित रख रखाव के अभाव में कांच के रंग फीके पड़ने लगे हैं। दुर्ग परिसर में ही मिरान साबह की दरगाह भी है। मिरान साहब बूंदी दुर्ग में एक वफादार सिपहसालार थे और एक मुठभेड़ में उन्होंने दुर्ग की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति दे दी थी, उन्हीं की स्मृति में यह दरगाह बनाई गई।
पृथ्वीराज चौहान का स्मारक
दुर्ग के रास्ते में ही हाडौती क्षेत्र के सबसे शूरवीर राजपूत राजा पृथ्वीराज चौहान का स्मारक भी बना हुआ है। इस स्मारक का निर्माण चौहान राज की शूरवीरता को चिरकाल तक सम्मान देने के लिए कराया गया था। इस स्मारक को सप्ताह के सातों दिन सुबह 7 से 9 बजे तक देखा जा सकता है।




तारागढ़ का इतिहास
बूंदी की चौकसी के लिए शहर के मुकुट भांति खड़े इस शानदार दुर्ग को राजस्थान के इतिहास लेखाकार कर्नल जेम्स टॉड ने राजस्थान का गहना कहा था। बूंदी शहर की स्थापना हाड़ा चौहान राजपूत कबीले के राज देवा ने 1341 में की थी। इसके बाद विभिन्न शासकों ने बूंदी और तारागढ़ पर राज किया। सोलहवीं सदी में तारागढ़ में कई निर्माण कार्य कराए गए। अपनी निर्मिति के बाद लगातार 200 वर्ष तक इस किले में विकास और निर्माण के कई कार्य कराए गए, जिससे यह दुर्ग फैलता गया। राजस्थान के अन्य किलों की तुलना में इस दुर्ग पर मुगल स्थापत्य कला का कोई खास प्रभाव दिखाई नहीं देता। यह दुर्ग ठेठ राजपूती स्थापत्य व भवन निर्माण कला से बना हुआ है। गढ और महलों के शीर्ष व गुंबद, छतें, मंदिरों के मंडप, जगमोहन, स्तंभ आदि खालिस राजपूत शैली के अप्रतिम और दुर्लभ उदाहरण हैं। कई स्थानों पर स्थापत्य में दर्शाए हाथी और कमल के फूल राजपूती स्थापत्य के ही प्रतीक हैं। एक खास बात और है जो इस किले को राजस्थान के अन्य दुर्गों से अलग करती है। राजस्थान के अधिकांश दुर्ग पीले बलुआ पत्थर से बने हैं। जबकि इस दुर्ग के निर्माण में बलुआ पत्थर का प्रयोग आंशिक तौर पर ही किया गया है। स्थानीय क्षेत्र में उत्खनित होने वाले जटिल संगठनयुक्त हरे रंग के टेढ़ा पत्थर का प्रयोग ज्यादा हुआ है। हालांकि यह पत्थर बारीक नक्काशी के लिए नहीं जाना जाता लेकिन इस पत्थर पर तारागढ दुर्ग में नक्काशी देखकर इतिहासकारों और स्थापत्य के जानकारों को भी हैरानी होती है। दुर्ग के भित्ति चित्र भी बहुत प्रभावी हैं।
आकर्षक खूबसूरती
महल के द्वार हाथी पोल पर बनी विशाल हाथियों की जोड़ी भी पर्यटकों को आकर्षित करती है। दुर्ग के अन्य आकर्षणों में छत्तर महल भी है, 1660 में बने इस महल की खूबसूरती लाजवाब है। इसके अलावा यहां स्थित चित्रशाला, फांसीउद्यान और तोरणद्वार गैलरी भी विशेष हैं। इन्हें 1748 से 1770 के दरमियान बनवाया गया था। इन स्थानों पर राजपूत चित्रकला शैली के भित्ति चित्र बहुत ही मनमोहक हैं। धार्मिक अनुष्ठानों, शिकार और राजसी मनोरंजन को बयां करते ये चित्र ऐतिहासिक दस्तावेज हैं।




कैसे पहुंचें तारागढ़ फोर्ट
तारागढ़ पहुंचने के लिए कोटा से बस द्वारा सफर किया जा सकता है। बूंदी जयपुर और कोटा के बीच नेशनल हाइवे नंबर 12 पर स्थित है। कोटा से बूंदी का रास्ता महज एक घंटे का है और हर पांच मिनट में कोटा से बूंदी के लिए बसें चलती हैं। जयपुर से भी बूंदी के लिए बसें चलती हैं और यह सफर सात-आठ घंटे का है।


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English Translation:-

Jai Mataji 🙏🙏🙏
Taragarh Fort: Bundi
The picturesque fort situated in the Aravalli hills Taragarh fort is a magnificent fort built on Nagpahari, one of the high hills of Aravali. It is also called Bundi Fort. In the fourteenth century, Rao Dev Hada, the founder of Bundi, built this huge and beautiful fort. This magnificent historical fort built in the mid-fourteenth century still gives Bundi tourism a global status.
This fort was built by the King of Bundi for complete protection from the enemies of his princely state. Therefore, it is one of the safest forts in the country. To build the fort, one end of the hill was completely molded and then built on the verge. For a long time, this inaccessible and strong fortress protected the princely state of Bundi.
Time has shaken The history of this grand fort, which has reached a state of shambles due to the ravages of time, is very illuminating. It is the oldest and the largest fort built in Hadauti area in the South East of India. This fort also has a special contribution in making Bundi a special city. Bundi has become a tourist city due to the Taragarh Fort. Although after witnessing the history of seven hundred years of its life, this fort is in old age, but still with a white aura around it, this fort is precious and valuable like a gold stamp lying on a pile of clay.
Thirteenth century architecture Presently surrounded by lush green hills and wooded areas, this fort is facing the neglect of the current era. Taragarh Durg is located at a distance of 39 km from Kota. This magnificent fort was built in 1354. Three huge gates have been built to enter this fort on the steep slope of the hill. They are known as Lakshmi Pol, Foota Darwaza and Gagudi Ka Phatak. These giant doors, built in the thirteenth and fourteenth centuries, have now begun to crumble and most of the parts have become ruins. In the golden period of history, it was very famous for the 'Star Fort' tunnels. However, now these tunnels are closed and finding them in the absence of maps is a very complicated task.
Glory of garbhunjan cannon The 'Garb Gunjan' cannon, placed on the Bhim Burj of the fort, used to deliver the sixes of enemies with its huge size and firepower. Even today, this cannon is kept here, but at present it has become a mere object of demonstration. It is said that when this cannon used to move, its dreadful roar caused a chime in the abdomen. That is why it was named 'Garbhunjan'. In the sixteenth century this cannon was many times buzzing. A spectacular panoramic view of Bundi can now be seen from the Bhim Burj. Also, this cannon placed on the Bhim Burj from every corner of Bundi is seen standing proudly narrating the story of history. Reservoir fortress
Chauhangarh is famous for its huge reservoirs. Having a reservoir in the premises of the fort at such a height enhances the beauty of the fort. This is an excellent example of the water harvesting system adopted at that time. Rain water in these reservoirs was kept irrigated and water was used for the needs of common residents in times of crisis. Due to the rocky base of the reservoirs, water used to be collected here throughout the year. Rani Mahal is a small and beautiful palace in the premises of the fort, which used to house the queens and girlfriends of the kings. This beautiful palace is recognized due to its magnificent mural painting and glass work on the windows. In the absence of proper maintenance, the colors of the glass have started to fade. There is also the dargah of Miran Sabah in the fort premises. Miran Saheb was a loyal warlord in the Bundi fort and in an encounter he sacrificed his life to protect the fort, this dargah was built in his memory.
Prithviraj Chauhan's memorial The memorial of Prithviraj Chauhan, the most powerful Rajput king of Hadauti area, is also on the way to the fort. This memorial was built to honor the valor of Chauhan Raj till long. This monument can be seen seven days a week from 7 to 9 am.

History of Taragarh
This magnificent fortress, standing like a crown of the city to guard Bundi, was called the jewel of Rajasthan by Colonel James Tod, History Accountant of Rajasthan. The city of Bundi was founded in 1341 by Raj Deva of Hada Chauhan Rajput clan. After this, various rulers ruled Bundi and Taragarh. In the sixteenth century several construction works were done in Taragarh. After its construction, many fortifications and development works were done in this fort continuously for 200 years, due to which this fort was spread. Compared to other forts of Rajasthan, this fort does not see any significant influence of Mughal architecture. This fort is made of typical Rajput architecture and building art. The tops and domes of the bastions and palaces, roofs, temple pavilions, jagamohans, pillars etc. are unequaled and rare examples of the Khalis Rajput style. Elephants and lotus flowers depicted in architecture in many places symbolize Rajput architecture. There is another special thing that sets this fort apart from other fortifications of Rajasthan. Most of the fortifications of Rajasthan are made of yellow sandstone. While sandstone has been used partially in the construction of this fort. Intricate organization-colored green serpentine stones being excavated in the local area have been used. Although this stone is not known for intricate carving, but historians and architectural experts are also surprised to see this stone carving in Taragarh fort. Citadel murals are also very effective.

Charming beauty
The huge elephant pair on the elephant gate of the palace also attracts tourists. Other attractions of the fort are the Chattar Mahal, the beauty of this palace built in 1660 is amazing. Apart from this, the Chitrashala, Hanging Udyan and Tornadwar Gallery are also special here. They were built between 1748 and 1770. The Rajput painting style murals at these places are very attractive. These paintings depicting religious rituals, hunting and royal entertainment are historical documents.

How to reach Taragarh Fort
To reach Taragarh one can travel by bus from Kota. Bundi is situated on the National Highway number 12 between Jaipur and Kota. The route from Kota to Bundi is just one hour and buses run from Kota to Bundi every five minutes. Buses also ply from Jaipur to Bundi and the journey is seven to eight hours long.










Thursday, June 4, 2020

सिरोही का किला(Sirohi Fort)

सिरोही का किला


जय माताजी🙏🙏🙏

सिरोही जिला राजस्थान के दक्षिण-पश्चिम भाग में स्थित है। यह उत्तर-पूर्व में जिला पाली, पूर्व में जिला उदयपुर, पश्चिम में जालोर और दक्षिण में गुजरात के बनसकंठा जिले से घिरा हुआ है। सिरोही जिले का कुल भौगोलिक क्षेत्र 5136 वर्ग है। किलोमीटर, जो राजस्थान के कुल क्षेत्रफल का लगभग 1.52 प्रतिशत शामिल है। डुंगरपुर और बंसवाड़ा के बाद, सिरोही राजस्थान का तीसरा सबसे छोटा जिला है।

सिरोही जिला पहाड़ियों और चट्टानी पर्वत से दो भागो में बट गया है। मांउट आबू के ग्रेनाइट मासेफ ने जिले को दो हिस्सों में विभाजित किया, जो उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम तक चल रहा था। जिले के दक्षिण और दक्षिण-पूर्व हिस्से, जो माउंट आबू और अरवलिस के बीच स्थित है। मुख्य दिल्ली–अहमदाबाद रेल लाइन पर एक स्टेशन अबू रोड पश्चिम बान की घाटी में स्थित है। सूखे पर्णपाती जंगल जिले के इस हिस्से में अधिकतर है, और माउंट आबू की ऊंची ऊंचाई को शंकुधारी जंगलों में शामिल किया गया है। अबू रोड सबसे बड़ा शहर और सिरोही जिले का मुख्य वित्तीय केंद्र है।



1405 में, राव सोभा जी (जो चौहानों के देवड़ा कबीले के प्रजनन राव देवराज के वंश में छठे स्थान पर थे) ने सिरानवा पहाड़ी की पूर्वी ढलान पर एक शहर शिवपुरी की स्थापना की जिसे खूबा कहा जाता था। पुराने शहर के अवशेष यहां निहित हैं और विरजी का एक पवित्र स्थान अभी भी स्थानीय लोगों के लिए पूजा का स्थान है।


 राव सोभा जी के पुत्र, शेशथमल ने सिरानवा हिल्स की पश्चिमी ढलान पर वर्तमान शहर सिरोही की स्थापना की थी। उन्होंने वर्ष 1425 ईसवी में वैशाख के दूसरे दिन (द्वितिया) पर सिरोही किले की नींव रखी। इसे बाद में सिरोही के नाम से जाना जाने वाला देवड़ा के तहत राजधानी और पूरे क्षेत्र के रूप में जाना जाता था। पुराणिक परंपरा में, इस क्षेत्र को “अर्बुद्ध प्रदेश” और अर्बुंदाचल यानी अरबूद + अंकल कहा जाता है।

 
आजादी के बाद भारत सरकार और सिरोही राज्य के माइनर शासक के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। समझौते के अनुसार, सिरोही राज्य के राज्य प्रशासन को 5 जनवरी 1949 से 25 जनवरी 1950 तक बॉम्बे सरकार ने ले लिया था। प्रेमा भाई पटेल बॉम्बे राज्य के पहले प्रशासक थे। 1950 में, सिरोही अंततः राजस्थान के साथ विलय हो गया था। सिरोही जिले के अबू रोड और डेलवाड़ा तहसीलों का नाम बदलकर 1 नवंबर, 1956 को राज्य संगठन आयोग की सिफारिश के बाद बॉम्बे राज्य के साथ बदल दिया गया। यह जिले की वर्तमान स्थिति बनाता है।




कर्नल टॉड ने माउंट आबू को “हिंदुओं के ओलंपस” के रूप में बुलाया क्योंकि यह पुराने दिनों में एक शक्तिशाली साम्राज्य की सीट थी। अबू ने मौर्य वंश में चंद्र गुप्ता के साम्राज्य का एक हिस्सा बनाया, जिन्होंने चौथी शताब्दी में शासन किया था। आबू के क्षेत्र ने सफलतापूर्वक खट्टरपस, शाही गुप्ता, वैसा राजवंश का कब्जा कर लिया, जिसमें सम्राट हर्ष आभूषण, कैओरास, सोलंकीस और परमार थे। परमारों से, जलोरे के चौहान ने अबू में साम्राज्य लिया। लूला, जोलोर के चौहान शासकों की छोटी शाखा में एक शेर ने वर्ष 1311ईसवीं में परमार राजा से आबू को जब्त कर लिया और अब उस क्षेत्र का पहला राजा बन गया जो सिरोही साम्राज्य के रूप में जाना जाता है। बनस नदी के तट पर स्थित चंद्रवती का प्रसिद्ध शहर राज्य की राजधानी थी और लुम्बा ने अपना निवास वहां ले लिया और 1320 तक शासन किया।

राव शिव भान को लुम्बा के छठे वंश के शोभा के रूप में जाना जाता था, अंत में चन्द्रवती को त्याग दिया और 1405 ईस्वी में शीर्ष पर एक किला बनाया और नव स्थापित शहर शिवपुरी कहा जाता था। लेकिन राव शिव भान द्वारा स्थापित शहर उनके लिए उपयुक्त नहीं था, इसलिए, उनके बेटे राव सहसमल ने इसे 1425 ईस्वी में त्याग दिया और सिरोही के वर्तमान शहर का निर्माण किया और इसे राज्य की राजधानी बना दिया। राव सहशमल, प्रसिद्ध राणा के शासनकाल के दौरान मेवार के कुंभ ने अबू, वसुंथगढ़ और पिंडवाड़ा के आस-पास के इलाके पर विजय प्राप्त की। राणा कुंभ ने वसुंथगढ़ में एक महल का पुनर्निर्माण किया और 1452 ईस्वी में अचलेश्वर के मंदिर के पास कुंभस्वामी में एक टैंक और एक मंदिर भी बनाया। राव लखा सहशमल के उत्तराधिकारी बने और इस क्षेत्र को मुक्त करने की कोशिश की अबू में गुजरात के राजा कुतुबुद्दीन की सहायता से कुंभ के साथ असभ्य भी थे। लेकिन लक्ष्हा अपने क्षेत्र को वापस पाने में नाकाम रहे।

सिरोही में राजनीतिक जागृति 1905 में गोविंद गुरु के सम्प सभा के साथ शुरू हुई जिन्होंने सिरोही, पालनपुर, उदयपुर और पूर्व इदार राज्य के आदिवासियों के उत्थान के लिए काम किया

 1922 में मोतीलाल तेजवत ने रोहिदा में जनजातियों को एकजुट करने के लिए ईकी आंदोलन का आयोजन किया, जो सामंती प्रभुओं द्वारा उत्पीड़ित थे। इस आंदोलन ने राज्य अधिकारियों द्वारा निर्दयतापूर्वक दबा दिया। 1924-1925 में एनएवी परागाना महाजन एसोसिएशन ने सिरोही राज्य के गैरकानूनी एलएजीबीएजी और कर प्रणाली के खिलाफ आवेदन दायर किया। यह पहली बार था कि व्यापारियों ने एक संघ का गठन किया और राज्य का विरोध किया। 1934 में सिरोजी राजया प्रंडा मंडल की स्थापना बॉम्बे में पत्रकार भिमाशंकर शर्मा पदिव, विधी शंकर त्रिवेदी कोजरा और समथमल सिंगी सिरोही के नेतृत्व में विले पारले में हुई थी। बाद में श्री गोकुलभाई भट्ट पर 1938 में प्रजमंडल में शामिल हो गए। उन्होंने 7 अन्य लोगों के साथ 22 जनवरी 1939 को सिरोही में प्राजा मंडल की स्थापना की। स्वतंत्रता की इन गतिविधियों के बाद, आंदोलन को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से मार्गदर्शन मिला। प्रजा मंडल ने जिम्मेदार सरकार और नागरिक स्वतंत्रता की मांग की, जिसके परिणामस्वरूप गोकुलबाही भट्ट के मुख्य मंत्री पद के तहत लोकप्रिय मंत्रालय का गठन हुआ।

1947 में भारत की आजादी के साथ भारत के रियासतों के एकीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई। सिरोही राज्य 16 नवंबर 1949 को राजस्थान राज्य के साथ विलय कर दिया गया था। देवड़ा वंश और उनकी उपलब्धियों के सिरोही के राजाओं का क्रोनोलॉजिकल ऑर्डर। यहां देवड़ा राजवंश के कुल 37 राजाओं ने सिरोही पर शासन किया था और वर्तमान पूर्व राजा देवड़ा वंश का 38 वां वंशज है।

 
सिरोही पर्यटन स्थल – सिरोही के दर्शनीय स्थल




अजारी मंदिर (मार्कंडेश्वर जी)
 
अबू रोड के रास्ते पर पिंडवाड़ा के लगभग 5 किमी दक्षिण में अजारी का गांव है। अजारी गांव से 2 किमी दूर, महादेव और सरस्वती का मंदिर है। दृश्यों में सुरम्य, शहद-कॉम्बेड डेट-पेड़ और पास के छोटे रिवलेट बहते हैं। छोटे पहाड़ी एक अद्भुत पृष्ठभूमि बनाते हैं, यह जगह एक अच्छी पिकनिक जगह बनाती है। मंदिर ऊंची दीवार से घिरा हुआ है। इसके अंदर 30 ‘x 20’ आकार का कुंड है। कहा जाता है कि मार्कंडेश्वर ऋषि ने ध्यान किया है। भगवान विष्णु और देवी सरस्वती की छोटी छवियां हैं। आस-पास तालाब आमतौर पर गया-कुंड जाना जाता है जहां लोग प्राणघातक अवशेषों को विसर्जित करते हैं। हर जेसुथा सुदी 11 और बासाख सूदी 15 पर एक मेला आयोजित किया जाता है।

  


 अंबेश्वर जी (कोलारगढ़) मंदिर
 
सिरोही से शेओगंज तक राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 14 के साइड ट्रैक पर सिरोही के उत्तर में छः मील की दूरी पर एक जगह देवी अम्बा जी मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। कोलार्गगढ़ 2 किमी की दूरी पर पूर्वी तरफ की ओर स्थित है। गणेश ध्रुव पर पुराने किले के अवशेष यहां देखे जा सकते हैं। एक धर्मशाला, एक जैन मंदिर, लक्ष्मी नारायण मंदिर, शिव मंदिर और गोरखनाथ स्थित है। 400 कदम चढ़ाई के बाद पहाड़ी पर भगवान शिव का एक प्राचीन मंदिर अपनी प्राकृतिक सुंदरता और झरने के साथ अद्भुत परिवेश के साथ देखा जा सकता है। पूरा क्षेत्र सिरानवा पहाड़ियों का हिस्सा है और प्रशंसनीय जीवों और वनस्पतियों के साथ खूबसूरत घने जंगल का आनंद लिया जा सकता है। ऐसा कहा जाता है कि पुराने शहर और कोलार के किले के अवशेष परमार शासनकाल का है।

 

 
बमनवाद मंदिर टेम्पल
 
यह मंदिर भगवान महावीर को जैन के 24 वें तीर्थंकर को समर्पित है। कहा जाता है कि मंदिर भगवान महावीर के भाई नंदी वर्धन ने बनाया था। जैन साहित्य के अनुसार भगवान महावीर अपनी 37 वीं धार्मिक यात्रा (चतुर्मास) में इस क्षेत्र में आए, इसलिए इस जिले में विरोली (वीर कुलिका), वीर वाडा (वीर वाटक), उेंद्र (उपनंद) जैसे उनके नाम से घिरे स्थान देखे गए हैं, नंदिया (नंदी वर्धन) और शनि गांव (शानमनी – अबू का एक आधुनिक पोलग्राउंड)। कर्ण किलान यानी नाखूनों का एपिसोड यहां महावीर स्वामी के कानों में बामनवाड़ा में था और साड़ी गांव में खेर पकाया गया था। चांदकोशिक सांप का काटने नंदिया में हुआ, और दृश्य ग्रेनाइट चट्टान पर नक्काशीदार चित्रण द्वारा चित्रित किया गया है।

 

 
भरू ताराक धाम
 
प्राचीन भारतीय साहित्य में वर्णित अरबुध नंदगिरी की घाटी में भरू तारक धाम की स्थापना की गई है। पूरी घाटी ऋषि मुनीस के आश्रमों का एक अच्छा निपटान दर्शाती है। इस घाटी से पहाड़ी ट्रैक माउंट आबू के नाकी झील में जाता है। इस ट्रैक का इस्तेमाल कर्नल टॉड द्वारा किया गया था, जो पहला यूरोपीय माउंट जाने के लिए था। अबू। यह प्राचीन ट्रैक माउंट आबू के निवासियों को घर के सामानों की आपूर्ति का मुख्य स्रोत था। सभी संतों, धार्मिक पर्यटकों और राजपूताना के विभिन्न राज्यों के राजाओं ने अबू तक पहुंचने के लिए इस ट्रैक का उपयोग किया। अनादारा में राजपूताना के सभी राज्यों के सर्किट हाउस थे, यह 1868 में स्थापित राजपूताना की पुरानी नगर पालिका में से एक था। मंदिर परस्थनाथ के सहस्त्र फाना (सांप के एक हजार हुड) को समर्पित सफेद संगमरमर का निर्माण किया गया है। परिसर में धर्मशाला, भोजनशाला और तीर्थयात्रियों के लिए सभी सुविधाएं हैं। बाड़मेर जिले में इस जगह से एक बस को नाकोडा तीर्थ तक भी संचालित किया जाता है।



 
चंद्रावती
यह अबू-अहमदाबाद राजमार्ग पर अबू रोड से 6 किमी दूर स्थित है। यह परमार शहर नष्ट हो गया है। इसका वर्तमान नाम चंदेला है। 10 वीं और 11 वीं शताब्दी में, अर्बुद्मंदल का शासक परमार था। चंद्रवती परमार की राजधानी थी। यह नगर सभ्यता, व्यापार और व्यापार का मुख्य केंद्र था। चूंकि, यह परमार की राजधानी थी इसलिए यह विरासत, संस्कृति और सभी सम्मान में समृद्ध थी। अबू के परमार, राजा सिंधुराज पूरे मारू मंडल के शासक थे।
चन्द्रवती आर्किटेक्ट के दृष्टिकोण से एक महान उदाहरण थे। कर्नल टोड ने अपनी पुस्तक ‘ट्रैवल इन वेस्टर्न इंडिया’ में कुछ चित्रों के माध्यम से चंद्रवती की पिछली महिमा के बारे में बताया। इन तस्वीरों के अलावा कोई सबूत नहीं है जो चंद्रवती की पिछली महिमा दिखाता है। । जब ब्रिटिश सरकार द्वारा रेलवे ट्रैक निर्धारित किया गया था, तो ट्रैक के नीचे शेष छेद भरने में बड़ी मात्रा में संगमरमर का उपभोग किया गया था क्योंकि उस समय कला की कोई जिज्ञासा और इच्छा नहीं थी। रेल के व्यवस्थित प्रारंभ के बाद, संगमरमर ठेकेदारों ने बड़ी संख्या में संगमरमर ठेकेदारों को अहमदाबाद, बड़ौदा और सूरत में ले जाया और सुंदर मंदिरों का निर्माण किया।

 

 
जिरावल मंदिर
 
मुख्य पारंपरिक जैन तीर्थयात्रा की श्रृंखला में, जिरावल का अपना महत्व है। यह महत्वपूर्ण मंदिर अरवली पर्वत पर जयराज हिल के बीच में स्थित है। जिरावल मंदिर बहुत प्राचीन और प्राचीन है। मंदिर धर्मशालाओं और सुंदर इमारतों से घिरा हुआ है। इस मंदिर का महत्व अनूठा है क्योंकि जैन मंदिरों की पूरी दुनिया की स्थापना इस मंदिर के नाम से बनाई जाती है ओएम श्रीम श्री जिरावाला पराशवननाथ नामा। मुख्य मंदिर और इसका कलामपैप 72 देव कुलिकस से घिरा हुआ है, इसकी संरचना और वास्तुकार मंदिर वास्तुकला की नगर शैली का है। धार्मिक पर्यटकों के लिए यहां सभी सुविधाएं मौजूद हैं।

 


वसुंत गढ़
 
वसंत गढ़ 8 किमी। दक्षिण में पिंडवाड़ा, सरस्वती नाम की एक नदी पर स्थित है। इसके पुराने नाम, जैसा कि विभिन्न स्रोतों से जाना जाता है, वेटलिया, वत्सथाना, वतनग्रा, वता, वाटपुरा और वशिष्ठपुर थे। इस जगह को बरगद के पेड़ों के कारण वता कहा जाता था, जो बहुतायत में पाए जाते हैं। ग्यारहवीं शताब्दी में, ऐसा माना जाता था कि एक बार, बरगद के पेड़ों के नीचे वशिष्ठ की बलिदान हुई थी। कहा जाता है कि वशिष्ठ ने अर्का और भार्ग के मंदिर का निर्माण किया था, और देवताओं के वास्तुकार की सहायता से, वता नामक शहर की स्थापना की, जिसमें रैंपर्ट, बगीचे के टैंक और ऊंचे मकानों से सजाया गया था। इसलिए इसे वशिष्ठपुर कहा जाता था।

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English Translation:-

Sirohi Fort


Jai Mataji🙏🙏🙏

Sirohi district is located in the southwestern part of Rajasthan. It is surrounded by District Pali in the North-East, District Udaipur in the East, Jalore in the West and Banaskantha District of Gujarat in the South. The total geographical area of ​​Sirohi district is 5136 Sq. Kilometer, which covers about 1.52 percent of the total area of ​​Rajasthan. Sirohi is the third smallest district of Rajasthan, after Dungarpur and Banswara.

Sirohi district is divided into two parts by hills and rocky mountains. The granite massif of Mount Abu divided the district into two, running from north-east to south-west. The south and southeast part of the district, which is situated between Mount Abu and Aravalis. Abu Road, a station on the main Delhi-Ahmedabad rail line, is located in the valley of West Ban. The dry deciduous forest is mostly in this part of the district, and the high elevation of Mount Abu is included in coniferous forests. Abu Road is the largest city and the main financial center of Sirohi district.

In 1405, Rao Sobha ji (who was the sixth in the lineage of Rao Devaraja, the progenitor of the Deora clan of Chauhans) founded a town called Shivpuri on the eastern slope of the Siranwa hill called Khuba. The remains of the old city are contained here and a sacred place of Virji is still a place of worship for the locals.

 The son of Rao Sobhaji, Sheshathamal founded the present city of Sirohi on the western slope of the Siranwa Hills. He laid the foundation of the Sirohi Fort on the second day (Dwitiya) of Vaishakh in the year 1425 AD. It was later known as the capital and the entire region under Deora known as Sirohi. In the Puranic tradition, this region is called "Arbudh Pradesh" and Arbundachal i.e. Arbud + Uncle.

 After independence, an agreement was signed between the Indian government and the minor ruler of Sirohi state. As per the agreement, the state administration of Sirohi state was taken over by the Bombay government from 5 January 1949 to 25 January 1950. Prema Bhai Patel was the first administrator of the Bombay state. In 1950, Sirohi finally merged with Rajasthan. The Abu Road and Delwara tehsils of Sirohi district were renamed with the State of Bombay on 1 November 1956 following the recommendation of the State Organization Commission. This forms the present condition of the district.


Colonel Todd called Mount Abu "Olympus of Hindus" as it was the seat of a powerful empire in the old days. Abu formed a part of the empire of Chandra Gupta in the Maurya dynasty, who ruled in the fourth century. The territory of Abu successfully captured the Khattarpas, Shahi Gupta, Vaisya dynasty, with emperors Harsha Jewel, Chaoras, Solankis and Parmars. From the Paramaras, the Chauhans of Jalore took the kingdom at Abu. Lula, a lion in the small branch of the Chauhan rulers of Jalore, seized Abu from the Paramara king in the year 1311 CE and now became the first king of the region known as the Sirohi kingdom. The famous city of Chandravati, situated on the banks of the river Banas, was the state capital and Lumba took his residence there and ruled until 1320.

Rao Shiva Bhan was known as the Shobha of the sixth dynasty of Lumba, eventually abandoned Chandravati and built a fort at the top in 1405 AD and the newly established city was called Shivpuri. But the city founded by Rao Shiva Bhan was not suitable for him, therefore, his son Rao Sahasmal abandoned it in 1425 AD and built the current city of Sirohi and made it the state capital. During the reign of Rao Sahasmal, the famous Rana, Kumbh of Mewar conquered the area around Abu, Vasanthgarh and Pindwara. Rana Kumbha rebuilt a palace in Vasanthgarh and also built a tank and a temple at Kumbhaswamy near the temple of Achleshwar in 1452 AD. Rao Lakha became the successor of Sahasmal and tried to free the region with the help of King Qutbuddin of Gujarat in Abu. But Lakha failed to regain his territory.

The political awakening in Sirohi began in 1905 with the Samp Sabha of Govind Guru who worked for the upliftment of the tribals of Sirohi, Palanpur, Udaipur and the erstwhile Idar state.

 In 1922 Motilal Tejwat organized the Eki movement in Rohida to unite the tribes, who were oppressed by the feudal lords. This movement was mercilessly suppressed by the state authorities. In 1924–1925 the NAV Paragana Mahajan Association filed an application against the illegal LAGBAG and tax system of Sirohi state. This was the first time that the traders formed a union and opposed the state. In 1934, Siroji Rajaya Panda Mandal was established in Vile Parle under the leadership of journalists Bhimashankar Sharma Padiva, Vidhi Shankar Trivedi Kojra and Samathamal Singhi Sirohi in Bombay. Later joined Prajamandal in 1938 on Shri Gokulbhai Bhatt. He along with 7 others founded the Praja Mandal at Sirohi on 22 January 1939. After these activities of independence, the movement received guidance from the Indian National Congress. Praja Mandal demanded responsible government and civil liberties, resulting in the formation of the popular ministry under the post of Chief Minister of Gokulbahi Bhatt.

With the independence of India in 1947, the process of integration of princely states of India began. The Sirohi state was merged with the state of Rajasthan on 16 November 1949. Chronological order of the kings of Sirohi, of the Deora dynasty and their achievements. A total of 37 kings of the Deora dynasty ruled Sirohi here and the current former king is the 38th descendant of the Deora dynasty.

 
Sirohi tourist destination - Sirohi tourist spots


Ajari Temple (Markandeswar Ji)
 
On the way to Abu Road is the village of Ajari, about 5 km south of Pindwara. There is a temple of Mahadev and Saraswati, 2 km from Ajari village. The scenery features picturesque, honey-combed date-trees and small rivulets flowing nearby. The small hills form a wonderful backdrop, making this place a good picnic spot. The temple is surrounded by a high wall. There is a 30 'x 20' shaped tank inside it. Markandeshwar Rishi is said to have meditated. There are small images of Lord Vishnu and Goddess Saraswati. The surrounding pond is commonly known as Gaya-Kund where people immerse mortal remains. A fair is held on every Jesutha Sudi 11 and Basakh Sudi 15.

   Ambeshwar Ji (Kolargarh) Temple
 
A place six miles north of Sirohi on the side track of National Highway No. 14 from Sirohi to Sheoganj is famous for the Goddess Ambaji Temple. Kolargadh is located at a distance of 2 km towards the eastern side. The remains of the old fort on the Ganesh Dhruv can be seen here. A Dharamshala, a Jain temple, Laxmi Narayan temple, Shiva temple and Gorakhnath are located. After climbing 400 steps an ancient temple of Lord Shiva can be seen on the hill with its natural beauty and amazing surroundings with waterfalls. The entire area is part of the Siranwa hills and beautiful dense forest with admirable fauna and flora can be enjoyed. It is said that the remains of the old city and the fort of Kolar are of the Parmar reign.

 Bamnavad Temple Temple
 
This temple is dedicated to Lord Mahavir, the 24th Tirthankara of Jain. The temple is said to have been built by Nandi Vardhan, brother of Lord Mahavira. According to Jain literature, Lord Mahavira came to this region in his 37th religious journey (Chaturmas), so the places surrounded by his name like Viroli (Veer Kulika), Veer Wada (Veer Watak), Undra (Upananda) have been seen in this district. , Nandia (Nandi Vardhan) and Shani Village (Shanamani - A modern poleground of Abu). The episode of Karna Killan i.e. nails was here in Bamanwara in Mahavir Swami's ears and Kher was cooked in Sari village. The moonlight snake bite occurred at Nandia, and the scene is depicted by a carving on granite rock.

 
Bharu Taarak Dham
 
Bharu Tarak Dham has been established in the valley of Arbudh Nandagiri mentioned in ancient Indian literature. The entire valley represents a good settlement of sages of sage Munis. The mountain track from this valley leads into the Nakki Lake of Mount Abu. The track was used by Colonel Todd, the first European to visit Mt. Abu. This ancient track was the main source of supply of household items to the inhabitants of Mount Abu. All the saints, religious tourists and kings of different states of Rajputana used this track to reach Abu. Anadara had circuit houses of all the states of Rajputana, it was one of the old municipality of Rajputana established in 1868. The temple is constructed of white marble dedicated to the Sahastra Phana (a thousand hoods of snakes) of Parasthanath. The complex has a dharamshala, a dining hall and all facilities for pilgrims. A bus from this place in Barmer district is also operated till Nakoda shrine.

Chandravati
It is located 6 km from Abu Road on the Abu-Ahmedabad Highway. This city of Parmar has been destroyed. Its current name is Chandela. In the 10th and 11th centuries, the ruler of Arbudmandal was Parmar. Chandravati was the capital of Parmar. The city was the main center of civilization, trade and trade. Since it was the capital of Parmar, it was rich in heritage, culture and all honor. Parmar of Abu, King Sindhuraj was the ruler of the entire Maru Mandal.
Chandravati was a great example from the architect's point of view. Colonel Todd, in his book 'Travel in Western India', told about the past glory of Chandravati through some pictures. There is no evidence other than these photos that shows Chandravati's past glory. . When the railway track was laid down by the British government, a large amount of marble was consumed in filling the remaining holes under the track as there was no curiosity and desire for art at that time. After the systematic commencement of the rail, marble contractors moved a large number of marble contractors to Ahmedabad, Baroda and Surat and built beautiful temples.

 Jiraval Temple
 
In the series of main traditional Jain pilgrimages, giraval has its own significance. This important temple is situated in the middle of Jairaj Hill on the Aravali Mountains. The Jiraval temple is very ancient and ancient. The temple is surrounded by dharamshalas and beautiful buildings. The importance of this temple is unique because the establishment of the entire world of Jain temples is made in the name of this temple Om Shreeam Shree Jirawala Parasavanath Nama. The main temple and its Kalampapa are surrounded by 72 Dev Kulikas, its structure and architect is of the city style of temple architecture. All facilities are available here for religious tourists.

Vasant bastion
 
Vasant Garh 8 km. Pindwara to the south is situated on a river named Saraswati. Its old names, as it is known from various sources, were Vetalia, Vatsathana, Vatnagra, Vata, Watpura and Vashisthapur. This place was called Vata due to the banyan trees, which are found in abundance. In the eleventh century, it was believed that once, Vashistha was sacrificed under banyan trees. Vashistha is said to have built the temple of Arka and Bharg, and with the assistance of the architect of the gods, established a city called Vata, which was decorated with ramparts, garden tanks, and lofty houses. Hence it was called Vashisthapur.