Wednesday, July 22, 2020

उमेद भवन- जोधपुर (Umaid Bhavan Jodhpur)

उमेद भवन- जोधपुर 

जय माताजी 🙏🙏🙏

उम्मैद भवन पैलेस राजस्थान (भारत) के जोधपुर ज़िले में स्थित एक महल है। यह दुनिया के सबसे बड़े निजी महलों में से एक है। यह ताज होटल का ही एक अंग है। एक सर्वेक्षण में उम्मेद भवन पैलेस को दुनिया का सबसे अच्छा होटल आंका गया है। उम्मेद भवन पैलेस का नाम इसके संस्थापक महाराजा उम्मेद सिंह के नाम पर रखा गया है।

जोधपुर के इस महल का निर्माण महाराजा उम्‍मैद सिंह ने सन 1943 में करवाया था। बलुआ पत्थर से बने इस भव्य होटल में 347 कमरे हैं। ट्रिपएडवाइजर के ‘ट्रेवलर्स च्वाइस अवॉर्ड फॉर होटल्स’ में दुनिया के शीर्ष होटल श्रेणी में इसे पहले स्थान पर रखा गया है। चित्तर पहाड़ी पर होने के कारण यह सुंदर महल ‘चित्तर पैलेस’ के रूप में भी जाना जाता है। यह भारत – औपनिवेशिक स्थापत्य शैली और डेको-कला का एक आदर्श उदाहरण है। डेको कला स्थापत्य शैली यहाँ हावी है और यह 1920 और 1930 के दशक के आसपास की शैली है।




यह महल सोलह वर्ष में बनकर तैयार हुआ था। संगमरमर और बालू पत्‍थर से बने इस महल का दृश्‍य पर्यटकों को ख़ासतौर पर लुभाता है। इस महल के संग्रहालय में पुरातन युग की घड़ियाँ और चित्रकारी आज भी संरक्षित हैं। इस स्मारक में 347 कमरे हैं और तत्कालीन जोधपुर शाही परिवार के लिए उपयोग किये जाते हैं। यही एक ऐसा बीसवीं सदी का महल है, जो बाढ़ राहत परियोजना के अंतर्गत निर्मित हुआ। जिसके कारण बाढ़ से पीड़ित जनता को रोजगार प्राप्त हुआ। बलुआ पत्थर से बना यह अतिसमृद्ध भवन अभी पूर्व शासकों का निवास स्थान है, जिसके एक हिस्से में होटल चलता है और बाकी के हिस्से में संग्रहालय।

महल को तराशे गये बलुआ पत्थरों को जोड़ कर बनाया गया था। महल के निर्माण के दौरान पत्थरों को बाँधने के लिये मसाले का उपयोग नहीं किया गया था। यह विशिष्टता बड़ी संख्या में पर्यटकों को इस महल की ओर आकर्षित करती है। इस सुंदर महल के वास्तुकार हेनरी वॉन, एक अंग्रेज थे।

 


पैलेस रोड जोधपुर में स्थित उम्मैद भवन पैलेस से मेहरानगढ़ दुर्ग से 6.5 किमी और जसवंत थढ़ की समाधि से 6 किमी दूर है। वर्तमान में उम्मैद भवन पैलेस का मालिक गज सिंह है। इस पैलेस के तीन भाग है, एक लग्ज़री ताज होटल जो (1972) से है ,एक शाही परिवार के लिए तथा एक संग्रहालय है। संग्रहालय के खुलने का समय सुबह 9 बजे से शाम 5 तक। यहाँ एक दीर्घा भी है जहाँ पर कई चीजें देखने को मिलती है।

इतिहास :-

उमैद भवन पैलेस के निर्माण का इतिहास एक संत के अभिशाप से जुड़ा है,जिन्होंने कहा था कि अच्छे शासन का पालन करनेवाले राठौड़ वंश को अकाल के एक दौर से गुजरना पड़ेंगा। इस प्रकार, 1920 के दशक में जोधपुर को लगातार तीन वर्षों तक सूखे और अकाल की स्थिति का सामना करना पड़ा।

अकाल की स्थिति का सामना करने वाले क्षेत्र के किसानों ने कुछ रोजगार प्रदान करने के लिए तत्कालीन राजा उम्मेद सिंह की सहायता मांगी, जो झारपुर में मारवाड़ के 37 वें राठौड़ शासक थे, ताकि वे अकाल की स्थिति से बच सकें । राजा, किसानों की मदद के लिए, एक भव्य महल का निर्माण करने का फैसला किया। उन्होंने महल के लिए योजना तैयार करने के लिए हेनरी वॉन लेन्चेस्टर को वास्तुकार के रूप में नियुक्त किया; लैनचस्टर सर एडविन लुटियन के समकालीन थे जिन्होंने नई दिल्ली सरकार के परिसर की इमारतों की योजना बनाई थी।




इस महल को धीमी गति से बनाया गया था क्योंकि इसका प्रारंभिक उद्देश्य स्थानीय स्तर पर अकाल-खतरनाक किसानों को रोजगार प्रदान करना था। लगभग 2,000 से 3,000 लोग इसे बनाने के लिए कार्यरत थे। महल के निर्माण की अनुमानित लागत 11 मिलियन थी।

अकाल की वजह से बना ये महल- 1930 में पड़े भीषण अकाल के दौरान तत्कालीन महाराजा उम्मेद सिंह ने लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने के लिए उम्मेद भवन का निर्माण शुरू कराया. चौदह बरस तक चले इस निर्माण पर तीन हजार लोगों को प्रत्यक्ष व हजारों लोगों को अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार मिला.

उम्मेद भवन पैलेस राजस्थान के जोधपुर ज़िले में स्थित एक महल है. जानकारी के मुताबिक, यह दुनिया के सबसे बड़े निजी महलों में से एक है. यह ताज होटल का ही एक अंग है.  इसका नाम महाराजा उम्मेद सिंह के पौत्र ने दिया था जो वर्तमान में मालिक है. अभी वर्तमान समय में इस पैलेस में 347 कमरे है. इस उम्मेद भवन पैलेस को छीतर पैलेस के नाम से भी पहले जाना जाता था जब इसका निर्माण कार्य चालू था.यह पैलेस 1943 में बनकर तैयार हुआ था.




उम्मेद भवन पैलेस के मालिक गज सिंह है. इस पैलेस के तीन भाग है , एक लग्ज़री ताज होटल जो (1972) से है ,एक शाही परिवार के लिए और एक संग्रहालय है. संग्रहालय के खुलने का समय सुबह 9 बजे से शाम 4 तक. यहां एक दीर्घा भी है जहां पर कई चीजें देखने को मिलती है. 

 बनाने की लागत एक करोड़ रुपये-  बताया जाता है कि विश्व के बेहतरीन होटल का खिताब हासिल कर चुके उम्मेद भवन के निर्माण पर उस समय डेढ़ करोड़ की भारी भरकम लागत आई. 




 विदेशों से मंगाई गई लकड़ी- उम्मेद भवन के निर्माण में लकड़ी के काम के लिए बर्मा टीक काम में ली गई. इसके लिए विशेष रूप से बर्मा(म्यांमार) से लकड़ी मंगाई गई. इसके लिए बड़ी संख्या में कारीगरों ने वर्षों तक इसके खिड़की व दरवाजों का निर्माण किया. इसके लिए बीस हजार घनफीट लकड़ी काम में ली गई. उस समय इसकी लागत साठ हजार रुपये ही आई. वर्तमान दौर में यह राशि करोड़ों में है. 

सोने का ताला खोल किया था उद्घाटन- उम्मेद भवन का उद्घाटन महाराजा उम्मेद सिंह के पुत्र व वर्तमान में पूर्व नरेश गजसिंह के पिता हनवंत सिंह के विवाह पर 13 फरवरी 1943 को किया गया. महाराजा के छोटे पुत्र सात वर्षीय दिलीप सिंह ने इसके मुख्य द्वार पर लगे सोने के ताले को खोल इसका विधिवत उद्घाटन किया. 




बिजली खर्च- भव्य उम्मेद भवन को रोशन करने के लिए अलग-अलग आकार के दस लाख मीटर लम्बाई के तार बिछाए हुए है. उस समय इसे रोशन करने को ढाई हजार किलोवाट बिजली की आवश्यकता होती थी. जबकि वर्ष 1943 में पूरे जोधपुर की बिजली की खपत इसकी एक तिहाई ही थी. 

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English Translation:-

Umaid Bhawan - Jodhpur

Jai Mataji 🙏🙏🙏

Umaid Bhawan Palace is a palace located in Jodhpur district of Rajasthan (India). It is one of the largest private palace in the world. It is a part of the Taj Hotel. A survey ranked Umaid Bhawan Palace as the best hotel in the world. Umaid Bhawan Palace is named after its founder Maharaja Umaid Singh.




This palace of Jodhpur was built by Maharaja Umaid Singh in the year 1943. This grand hotel made of sandstone has 347 rooms. It has been ranked first in TripAdvisor's Traveller's Choice Award for Hotels in the world's top hotel category. Being on the Chittar hill, this beautiful palace is also known as the 'Chittar Palace'. It is a perfect example of Indo-colonial architectural style and deco-art. Deco art architectural style dominates here and is a style dating back to the 1920s and 1930s.

This palace was completed in sixteen years. The view of this palace made of marble and sandstone attracts tourists especially. Watches and paintings of the ancient era are still preserved in the museum of this palace. The memorial has 347 rooms and is used for the erstwhile Jodhpur royal family. This is one such twentieth century palace, which was built under the flood relief project. Due to which the flood affected people got employment. This opulent edifice built of sandstone is now the abode of former rulers, one part of which runs a hotel and the rest a museum.

The palace was built by carving sandstone. During the construction of the palace, spices were not used to bind stones. This uniqueness attracts a large number of tourists to this palace. The architect of this beautiful palace was Henry Vaughan, an Englishman.

The Umaid Bhawan Palace located in Palace Road Jodhpur is 6.5 km from the Mehrangarh Fort and 6 km from the tomb of Jaswant Thadar. Presently the owner of Umaid Bhawan Palace is Gaj Singh. The palace has three parts, a luxury Taj Hotel which is from (1972), a royal family and a museum. Opening time of the museum from 9 am to 5 pm. There is also a gallery where many things are seen.

History :-

The history of the construction of the Umaid Bhawan Palace is linked to the curse of a saint, who said that the Rathore dynasty that followed good governance would have to go through a period of famine. Thus, Jodhpur faced drought and famine for three consecutive years in the 1920s.

Farmers of the region facing a famine situation sought the assistance of the then king Ummed Singh, the 37th Rathore ruler of Marwar in Jharpur, to provide some employment so that he could avoid famine. The king, to help the peasants, decided to build a grand palace. He appointed Henry von Lanchester as the architect to formulate plans for the palace; Lanchester was a contemporary of Sir Edwin Lutyens who planned the buildings on the premises of the New Delhi government.

The palace was built at a slow pace as its initial objective was to provide employment to famine-threatened farmers at the local level. Approximately 2,000 to 3,000 people were employed to build it. The estimated cost of building the palace was 11 million.

This palace built due to famine - During the severe famine in 1930, the then Maharaja Umaid Singh started the construction of Umaid Bhawan to provide employment to the people. Three thousand people got direct and thousands of people got indirect employment on this construction which lasted for fourteen years.

Umaid Bhawan Palace is a palace located in Jodhpur district of Rajasthan. According to the information, it is one of the largest private palaces in the world. It is a part of the Taj Hotel. It was named by the grandson of Maharaja Umaid Singh, who is the current owner. At present, this palace has 347 rooms. This Umaid Bhawan Palace was also known as Chhatar Palace before its construction was in progress. This palace was completed in 1943.

The owner of Umaid Bhawan Palace is Gaj Singh. The palace has three parts, a luxury Taj Hotel which is from (1972), one for the royal family and one museum. Opening time of the museum from 9 am to 4 pm. There is also a gallery where many things are seen.

 The cost of making one crore rupees - It is said that the construction of Umaid Bhawan, which has acquired the title of world's best hotel, at that time cost a huge amount of one and a half crores.

 Burmese teak was used for woodwork in the construction of wood-Umaid Bhawan, imported from abroad. For this, wood was specially sourced from Burma (Myanmar). For this, a large number of artisans built its windows and doors for years. Twenty thousand cubic wood was used for this. At that time it cost only sixty thousand rupees. At present, this amount is in crores.

Gold lock was inaugurated- Umaid Bhawan was inaugurated on 13 February 1943 on the marriage of Hanwant Singh, son of Maharaja Umaid Singh and currently the father of the former King Gaj Singh. Seven-year-old Dilip Singh, the Maharaja's younger son, duly inaugurated it by opening a gold lock on its main gate.

Electricity expenditure- To illuminate the grand Umaid Bhawan, wires of different sizes are of one million meters length. At that time, two and a half thousand kilowatts of electricity was required to illuminate it. Whereas in the year 1943, electricity consumption of entire Jodhpur was only one third of it.












Wednesday, July 1, 2020

कंथकोट किला(Kanthkot Fort)

कंथकोट किला 

जय माताजी 🙏🙏🙏

कंथकोट किला गुजरात के कच्छ के वागड़ क्षेत्र के भचाऊ तालुका, कंथकोट गाँव के पास स्थित है।

कंथकोट किला 8 वीं शताब्दी में निर्मित, यह एक पृथक चट्टानी पहाड़ी की चोटी पर स्थित है, इसमें 5 किमी का दायरा है। यह किला 8 वीं शताब्दी में  काठी राजपूतो की राजधानी थी  जो सूर्य के उपासक थे।  चावड़ा राजपूतो ने उनसे कंथकोट जित लिया था। चावड़ा राजपूतो  के बाद, सोलंकी राजपूत आए और उनके बाद वाघेला राजपूत,और आखिर में ये जडेजा राजपूतो के अधीन रहा।



कंथकोट किला का दरवाजा- Kanthakot Fort Door 


अब इस किले और कच्छ को इतिहास की दृष्टि से देखें

जडेजा वंश ने 1540 और 1948 के बीच कच्छ की रियासत पर शासन किया, जिस समय भारत एक गणराज्य बना रहा। इस राज्य का गठन राजा खेंगरजी प्रथम ने किया था, जो बारह जडेजा कुल के जमींदार परिवारों के अधीन थे, जो उनसे संबंधित भी थे, साथ ही वाघेला राजपूत समुदाय के दो कुल परिवार भी थे। खेंगरजी और उनके उत्तराधिकारियों ने इन भयात सरदारों की निष्ठा को 1700 के मध्य तक बरकरार रखा।

विक्रम संवत 683 में, आज के दिन इजिप्त को 'मिसर' या मिस्र कहा जाता था, और "शोणितपुर" नामक मिसर में एक राज्य था, जिसे महान राजा जाम देवेंद्र सामा द्वारा शासित किया गया था। उनके पूर्वजों को ईरान के सम्राट द्वारा 'जाम' की उपाधि दी गई थी। उस वर्ष  ई.स .683 में, सोनितपुर पर उमर खलीफा ने हमला किया ,और सोनितपुर की लड़ाई में राजा देवेंद्र हार गए। उमर खलीफा ने देवेंद्र के सबसे बड़े बेटे असपत को सोनितपुर के सिंहासन की पेशकश इस शर्त के साथ की कि असपत को इस्लाम में परिवर्तित होना पड़ेगा। इसलिए असपत इस्लाम में परिवर्तित हो गया और सोनितपुर का राजा बन गया। तीन अन्य भाइयों गजपत, नरपत और भूपत ने इस्लाम में परिवर्तित होने से इनकार कर दिया और वे वर्तमान अफगानिस्तान में चले गए। उन्होंने राजा फिरोजशाह को हराकर गजनी पर कब्जा कर लिया और जाम नरपत को गजनी का राजा बनाया गया। उन्होंने 18 साल तक गजनी से अफ़गानिस्तान के एक प्रमुख हिस्से पर शासन किया। उसके बाद काबुल के बादशाह के साथ एक युद्ध में, वह हार गए और वह शहीद हो गए। उनके पुत्र सामाजी वर्तमान सिंध (पाकिस्तान) चले गए। वे सभी उस समय "सामा " राजपूत कहलाते थे। सामा  राजपूत के राजा को जाम कहा जाता था। सामा राजपूतों की कई पीढ़ियों ने सिंध पर राज किया था। उनकी राजधानी "सामा नगर" या 'नगर-थाथा' कहलाती थी ,जो कराची से लगभग 100 किलोमीटर की दुरी पर है ,अभी भी कराची से लगभग 100 किलोमीटर दूर थाथा के अवशेष देखे जा सकते हैं।



कंथकोट किले के अवशेष -Remains of Kanthakot Fort

लगभग 800 ई .स. में बहुत प्रसिद्ध सम्राट "लाखो घुरारो" हुए जिन्होंने काबुल के राजा को भी हराया था। लाखो घुरारो के सबसे बड़े बेटे जाम मोद सामा ने  ई .स. 875 में कच्छ पर कब्जा कर लिया, 'गुट्री गढ़' उस समय उनकी राजधानी थी। उसके बाद, सामा  राजपूतों ने लगभग 200 वर्षों तक कच्छ पर शासन किया। ई .स. 1075. मोद के बेटे, जाम साद ,ने महान किले "कंठकोट" का निर्माण कराया। सबसे बड़े शासक जाम लाखो फुलानी थे, जिन्होंने 99 गज की दूरी तय की, और ई .स.1035 में अटकोट (राजकोट से 50 की.मी.) में मूलराज सोलंकी के साथ लड़ाई में शहीद हो गए।

 ई .स. 1185 में, जाम जादाजी, सामा नगर, सिंध के राजा बने। उनका  कोई पुत्र नहीं था। इसलिए उन्होंने अपने छोटे भाई वेराजी के दो पुत्रों को गोद लिया; लाखाजी और लखियारजी। इसलिए लाखाजी और लखियारजी के नाम बदलकर लाखाजी 'जडेजा' कर दिए गए, जिसका अर्थ है जादाजी के पुत्र। तत्पश्चात सभी वंशज 'जडेजा' के नाम से जाने गए, जिसका अर्थ है जादाजी के पुत्र। इसलिए जाम लाखाजी को लाखा जादानी भी कहा जाता है, उन्होंने फिर से कच्छ में ई .स. 1203  में कब्जा कर लिया और अपने छोटे भाई लखियारजी के नाम पर "लखियार वीरो" में अपनी राजधानी स्थापित की। लाखो जादानी ने कच्छ में ई .स. 1147 -1175 के बीच शासन किया और गद्दी (सिंहासन) के लिए एक उत्तराधिकारी, जाम रातो रैधान को चुना।रातो का मतलब कच्छी में लाल था और उन्हें इसलिए बुलाया गया था क्योंकि वह अपनी पगड़ी में एक लाल कपड़ा बाँधते थे,जो लड़ाई के दौरान विकट परिस्थिति में उसे सँभालते थे। जाम रैतो रेधान के चार पुत्र थे, जैदजी, होथिजी, गजनजी और ओथाजी उन्हें क्रमशः कंठकोट, गजोद, बारा और कच्छ में क्रमशः मुख्य राजधानी लखियार वीरो दिया गया था। जैसा कि ओथाजी सबसे छोटे थे और तब भी उन्हें गुरू मामैया मातंग द्वारा मुख्य राजगद्दी पर कब्जा करने के लिए चुना गया था, उन्होंने सिंहासन पर कब्ज़ा कर लिया और बाकी सब भयात बनके रह गए, भयात शब्द शाही परिवार के सभी वंशजों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। भयात परिवार जो राज्य के भीतर अपने स्वयं की  जागीर को नियंत्रित करते हैं और सामंती व्यवस्था का पालन करते हैं।




रोहा का किला (Roha Fort)

वर्षों तक, गुरू मामैया मातंग द्वारा बड़े भाइयों के साथ अन्याय के कारण उनके अंदरो -अन्दर लगातार झड़पें हुईं, जब तक कि इन घरों का ओथाजी और गजानजी के दो समूहों में विलय नहीं हो गया। इनमें से पहली घटना जिसने कच्छ के इतिहास को बदल दिया, वह है बारा-तेरा के जाम रावल द्वारा जडेजा की छोटी शाखा के प्रमुख और ओथाजी के वंशज, लाखियारवीरो के जाम हमीरजी की हत्या। ऐसा माना जाता है कि जाम रावल ने अपने पिता जाम लाखाजी की हत्या का कारण हमीरजी को माना था, क्योंकि वह लाखियारवीरो  के इलाके के भीतर मारे गए थे, और जडेजा ओ की दो शाखाओं के बीच के विवाद को सुलझाने के बहाने, जडेजाओ की कुलदेवी माँ आशापुरा की जूठी शपथ ली। उन्होंने हमीरजी को भोजन के लिए आमंत्रित किया और छल से उनका वध कर दिया। इस समय के दौरान, हमीरजी के दो बेटे अलोजी और खेंगरजी, अहमदाबाद में थे और जाम रावल द्वारा बनाए गए शाही परिवार के पूर्ण विनाश से बच गए, इसके बाद जाम रावल ने कच्छ के सिंहासन पर कब्जा कर लिया और सर्वोच्च अधिकार के साथ शासन किया। तत्पश्चात जाम रावल ने सौराष्ट्र क्षेत्र के सभी राजाओं को हराकर उन क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया और  महान राज्य नवावनगर की स्थापना की गई, राजधानी शहर को जामनगर कहा जाता था, जो आज भी सौराष्ट्र का एक आश्रित शहर है। जामनगर की स्थापना जाम रावल ने इस 1596 की पहली तिमाही के श्रावण मौन के 7 वें दिन की थी।अपने जीवन में जाम रावल को कभी किसी भी लड़ाई में हार नहीं मिली। इस 1606  में, जाम रावल ने सौराष्ट्र और गुजरात के सभी राजाओं की संयुक्त सेना को हराया, यहाँ तक कि अहमदाबाद के सुल्तान ने प्रतिध्वंधि सेना को 140 तोपें देकर विरोध किया, जो जाम रावल के पास नहीं थी। फिर भी जाम रावल ने "मिथोई" की महान लड़ाई में, उन सभी को पराजय दिया।यह जगह वर्तमान में रिलायन्स रिफायनरी के पास है। उस लड़ाई में जाम रावल के छोटे भाई: हरधोलजी शहीद हो गए। यह प्रसिद्ध युद्ध "मिथोई युद्ध" के नामसे भी जाना जाता है । अहमदाबाद के सुल्तान के समर्थन से सौराष्ट्र और गुजरात के सभी राजाओं की संयुक्त संख्या लगभग 2,50,000 थी और जाम रावल की सेना लगभग 1,50,000 थी। संयुक्त बलों के पास 140 बड़ी बंदूकें (तोपें) थीं, जो जाम रावल की सेना के पास नहीं थीं। युद्ध शुरू होने से पहले जाम रावल की सेना के युद्ध विशेषको की एक बैठक हुई, जिसमें यह तय किया गया था कि हम केवल तभी लड़ाई जीत सकते हैं जब अगर हम तोपों की विशिष्ट जगह पर एक विशेष पेंच फिट होने पर तोपों की शक्ति को बेअसर कर सके और इससे तोप में आग नहीं लग सकती। इसलिए जाम रावल की सेना की सभी सेनाओं की एक विशाल बैठक बुलाई गई, जिसमें एक 'बीडू'(किसी खास काम को अंजाम देना) परिचालित किया गया, जिसमें यह घोषित किया गया था कि "क्या कोई बहादुर राजपूत है जो संयुक्त दुश्मन सेना की सभी 140 बड़ी तोपों में एक पेंच फिट कर सकता है," 'बीडू' के सिद्धांतों के अनुसार, बहादुर राजपूत को 12 गांवों को जागीर में देकर सम्मानित किया जाएगा, अगर कोई भी उस चुनौती को स्वीकार नहीं करता है, तो पूरी बैठक के सामने एक पवित्र  ब्राह्मण-आदमी को मार दिया जायेगा और बैठक में उपस्थित सभी लोगो को ब्रह्म-हत्‍या का 'महान पाप' लगेगा। बीडू को अधिकतम चार बार प्रसारित किया जायेगा , फिर भी यदि कोई चुनौती को स्वीकार नहीं करता है, तो एक पवित्र ब्राह्मण व्यक्ति को मार दिया जायेगा। तीन बार  तक किसी ने चुनौती नहीं ली, लेकिन चौथी बार पर, एक महान बहादुर राजपूत  तोगाजी सोढा ने तीन जडेजा राजपूतों के साथ चुनौती स्वीकार कर ली, और अजनबियों की तरह नाम और वेशभूषा बदल कर  विपक्षी शिविरों में गए, जो बड़ी-बड़ी तोपों के बारे में जानने के लिए उत्सुक थे। महान तोगाजी सोढा और उनके साथीदारों ने  बहादुरी, शिष्टता और कौशल के साथ  दुश्मनों की सभी 140 बड़ी तोपों को पूरी तरह से बेकार कर दिया। बाद में,जब दुश्मनों को इस बात का एहसास हुआ,तब  दुश्मनों के सैनिकों और जाम रावल की सेना के इन बहादुर 4 व्यक्तियों के बीच भयंकर लड़ाई हुई। जब वह सभी 140 बड़ी तोपों को निरस्त करने का काम सफलतापूर्वक पूरा करने के बाद वापस आये तब तोगाजी सोढा  के शरीर में 84 घाव थे,। तोगाजी सोढा उस समय दुनिया में उस सदी के सबसे महान युद्ध नायकों में से एक थे ,जाम रावल की सेना में उनके जैसे बहुत कम सिपाही थे । संयुक्त बलों के शिविर में एक बड़ी घबराहट थी जब उन्हें एहसास हुआ कि जाम रावल की सेना के केवल 4 सैनिकों ने हमारी सभी तोपों को नष्ट कर दिया है, अगर सभी 1,50,000 सैनिक हमसे लड़ने आएंगे तो क्या होगा। अंतिम उपाय के रूप में, संयुक्त बलों के सभी 2,50,000 सैनिकों की एक विशाल बैठक बुलाई गई और उसी तरह की व्यूह रचना की जैसे कि जाम रावल की रणनीति थी   उन्होंने एक 'बीडू' प्रसारित किया, कि 'क्या हमारे कबीले में कोई बहादुर व्यक्ति है जो  जाम रावल का सिर काट के ला सकता हो ? ' करसनजी नाम के एक सैनिक ने चुनौती स्वीकार की। करसनजी अपने 'भालो' (भाला) पर एक सफेद झंडा लगाकर चले गए। एक सफेद कपड़े से पता चलता है कि ‘वे आत्मसमर्पण करना चाहते हैं! ', इसलिए उन्हें जाम रावल के सेना शिविर के सबसे गहरे हिस्से में जाने दिया गया। करसनजी ने जोर देकर कहा कि वह व्यक्तिगत रूप से संदेश केवल जाम रावल को ही सौंपेंगे, किसी और को नहीं। जाम रावल के छोटे भाई, और जाम रावल की सेना के सेनापति ,हरधोलजी ने भी करसनजी से कहा कि 'वह जाम रावल है , मुझे वो संदेश देदे। करसनजी को लगा की वह जाम रावल है ,और तुरंत अपना भाला लेकर हरधोलजी पर वार किया और वो बहुत जख्मी हुए और बाद में उनकी मृत्यु हो गई और वे शहीद हो गए। यह बात जानकर जाम रावल बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने करसनजी को मारने का आदेश दिया, लेकिन तब तक करसनजी अपने घोड़े पर सवार होकर बहुत तेजी से भागे और सेना के शिविर से बाहर चले गए।



रोहा किले के खंडहर अवशेष (Ruins Remains of Roha Fort)

तभी मेरामनजी हाला(जडेजा राजपूतों की एक उप-शाखा) जो कि 16 साल के एक युवा राजपूत 'सिहंण' नदी में अपनी घोड़ी को नहलाने में व्यस्त थे,उनकी घोड़ी का नाम “पट्टी”था। उन्होंने शोर सुना और एक व्यक्ति को भागते हुए देखा और सैकड़ों लोग चिल्लाते हुए उसके पीछे भाग रहे थे। उन्हें जल्द ही कुछ गड़बड़ी का एहसास हुआ और तुरंत अपनी  घोड़ी पे सवार हो गए और दुश्मन सैनिक करसनजी के पीछे भागे। उन दोनों के बिच अभी बड़ा खासा अंतर था। लगभग 50 फीट चौड़े नदी के गड्ढे के बीच, मेरामनजी ने अपने घोड़ी से कहा कि 'यह हाला वंश के लिए बहादुरी की परीक्षा का समय है'। पट्टी ने 50 फीट नदी-गड्ढे को कूद दिया और मेरामनजी हाला जडेजा ने घोड़े पर खड़े होकर अपना भाला करसनजी पर फेंक दिया। मेरामनजी का भाला करसनजी के दिल और उनके घोड़े के मध्य से निकल कर  निचे मिट्टी में गहराई तक चला गया। यह उस सदी के सबसे महान योद्धाओं में से एक मेरामनजी हाला जडेजा का शौर्य पराक्रम था। तब हजारों सैनिकों और जाम रावल ने आकर मेरामनजी की वीरता और शौर्य को देखा। जाम रावल कभी कवि नहीं थे, लेकिन इस महान शौर्य को देखने के बाद, जाम रावल के मुंह से अनायास शब्द निकल पड़े “हालाजी तारा हाथ वखाणु के पट्टी  तारा  पगला वखाणु ” (क्या प्रशंसा करूं? क्या मैं मेरामनजी हलाजी के हाथों की प्रशंसा करूं या पट्टी घोड़ी के पैरों की! में भ्रम में हु। ),और ये शब्द गुजराती भाषा के महान शौर्य गीत के रूप में बन गए, जो सदियों से लाखों लोगों और करोड़ों लोगों को राष्ट्र के लिए लड़ने के लिए प्रेरित करते हैं।



माता नो मढ़ (कुलदेवी माँ आशापुरा का मंदिर)-Mata no Madh (Temple of Kuldevi Maa Ashapura)


संघियों के साथ संघर्ष करने के बाद लखाजी ने जीत हासिल की और दोनों जातियों को एक संपत्ति में मिला दिया, जिसे उन्होंने बारा के गजानजी के पुत्र और उनके पूर्वज हलाजी के नाम पर, 'हालार' नाम दिया, हालांकि ऐसा करने पर, उन्होंने नए हासिल किये हुए क्षेत्र के लिए बहुत खून बहाया।और एक अवसर पर, संघियों द्वारा कच्छ के बारा के अपने पैतृक स्थान पर आने के बाद, लखियारविरो से गुजरते समय, उन्हें हमीरजी के आतिथ्य के बारे में संदेह हुआ और उन्होंने बाहरी इलाके के गाँव में रात गुजारने का फैसला किया, जहाँ उनकी हत्या उस शख्स द्वारा की गई थी जिसने उनका पीछा कर रहा था। लाखाजी के पुत्र जाम रावल ने हमीरजी पर दोष मढ़ दिया, क्योंकि उनके पिता की मृत्यु लखियारवीरो के क्षेत्र के भीतर हुई थी, और वह अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए आतुर से थे, समय के साथ, दो शाखाओं के बीच विवाद को सुलझाने के बहाने जाम रावल ने हमीरजी के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध विकास करना शुरू कर दिया।, एक दिन अपने पिता की हत्या का बदला लेने के इरादे से, लखियारवीरो के ऐसे ही एक दौरे पर, उन्होंने जाम हमीरजी को बारा में आमंत्रित किया, और उन्होंने जडेजा के सर्वोच्च देवी (कुलदेवी ) माँ आशापुरा की जूठी  शपथ ली, जाम हमीरजी ने इसे दोनों शाखाओ के बिच के विवाद को निपटाने का सही मौका मानकर  निमंत्रण स्वीकार करने का फैसला किया, लेकिन घर की महिलाओं ने इसे एक खराब पूर्वसंकेत मानकर युवा राजकुमारों खेंगरजी और अलिओजी को वापस बुला दिया और जाने से मना कर दिया ,जाम हमीरजी अपने भरोसेमंद साथियो के साथ जाम रावल के पास जाने के लिए तैयार हुए,भोजन करने के बाद जाम हमीरजी और उनके साथीदारों को जाम रावल के सैनिको द्वारा घेर लिया गया और उन्हें मौत के घाट उतार दिया। 



तेरा किला (Tera Fort)

1575 में ही जाम रावल द्वारा हर्ध्रोरजी को ध्रोल राज्य के राजा बना दिए गए । जाम रावल के बाद, जाम विभाजी नवावनगर के राजा बने। विभाजी के बाद, जाम सताजी -1 नवानगर के राजा बने। वह एक बहुत महान योद्धा थे और उन्होंने इस 1633 में दिल्ली के सम्राट अकबर को 'मजेवाड़ी' गांव के पास जूनागढ़ के युद्ध में दो बार हराया। 1633, जाम सत्ताजी  ने मुज़फ़्फ़रशाह -तीसरे का पीछा करते हुए मुग़लो की सेना को हराया जो मुग़ल सेना के साथ युद्ध में पराजित हुआ था। मुगल सेना के 3335 घोड़ों और 52 हाथियों को जाम सत्ताजी के मुख्य सेनापति भानजी दल द्वारा पकड़ लिया गया था। इस अपमान को ध्यान में रखते हुए, अकबर ने 1640 में एक बार फिर 'तमाखन' गाँव के पास (वर्तमान में सिंचाई क्षेत्र में बांध के पास) जाम सत्ताजी पर हमला किया और एक बार फिर अकबर की सेना बुरी तरह से हार गई। बहुत ही परेशान अकबर ने अहमदाबाद के सूबे की अवहेलना की और 'अज़ीज़ कोको' को
अहमदाबाद, गुजरात का नया सुबा नियुक्त किया गया,जिसने 90,000 सैनिकों की विशाल सेना के साथ फिरसे सत्ताजी पर हमला किया। ध्रोल के पास इस प्रसिद्ध 'भरूचमोरी' युद्ध में,जाम सत्ताजी को हराया गया,लेकिन अकबर को इस प्रसिद्ध राजा जाम सत्ताजी के साथ डेढ़ साल बाद समझौता करना पड़ा और फिर से जाम सत्ताजी  नवानगर के राजा बने।, यहां तक ​​कि अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "अकबरनामा" में, अकबर ने लिखा "सत्ताजी बहुत शक्तिशाली था और 30,000 की सेना रखने के लिए लोकप्रसिध्द था"।इ.स. 1633 में मझवाड़ी, जूनागढ़ की लड़ाई में  अकबर की सेना को पराजित करने के बाद जाम सत्ताजी  को स्थानीय लोगों और स्थानीय कवियों आदि द्वारा "पच्छिम भारत को बादशाह" की उपाधि दी गई थी। 



भुज किले की दिवार -Wall Of Bhuj Fort

खेंगरजी, जिन्हें कच्छ विरासत में मिला था, वे केवल 15 साल के थे जब उनके पिता की हत्या कर दी गई थी। वे  महमूद बेगड़ा की सेना में भर्ती हो गये । एक शाही शिकार आयोजन  के दौरान, खेंगरजी  ने एक शेर को मार दिया और सुल्तान की जान बचाई जिसके लिए उन्हें अपना इनाम देने के लिए कहा गया,खेंगरजी की मुख्य महत्वाकांक्षा कच्छ को फिर से हासिल करना था और इसलिए उन्होंने जाम रावल के खिलाफ लड़ने के लिए समर्थन मांगा, उन्हें महमूद बेगड़ा द्वारा 1000 सैनिकों को की भेट दी गयी और मोरबी तक राज करने का हक़ दिया और 'राव' उपाधि दी गई।। कच्छ और मोरवी के भीतर शुभचिंतकों के सहयोग से राव खंगार ने जाम रावल के साथ लड़ाई लड़ी और धीरे-धीरे रापर  और आस-पास के गांवों के इलाकों को हासिल करना शुरू कर दिया, क्योंकि खंगार राज्य में राजगद्दी पाने के लिए योग्य उत्तराधिकारी थे और जाम रावल के प्रति कच्छ राज्य के भीतर असंतोष बढ़ता गया। । जाम रावल माँ आशापुरा के भक्त थे,और यह मानते थे कि देवी ने उन्हें कच्छ छोड़ने और खुद को हलार (सौराष्ट्र) में राज करने का संकेत दिया था, और वह इस कार्य  में उनका समर्थन और मदद करेंगी। जाम रावल ने सौराष्ट्र की स्थापना की और खुद का नवानगर में राज स्थापित किया। खेंगर ईस्वी 1549 में कच्छ के 1 राव बने और भुज को राजधानी के रूप में स्थापित किया।

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English Translation:-

Jai Mataji🙏🙏🙏

Kanthakot Fort is located near the village of Kanthakot, Bhachau taluka of the Vagad region of Kutch, Gujarat.

Kanthakot Fort Built in the 8th century AD, it is situated on the top of an isolated rocky hill, it has a radius of 5 km. This fort was the capital of Kathi Rajputs who worshiped the Sun in the 8th century. Chavada Rajputs had won Kanthakot from them. After the Chavada Rajputs, the Solanki Rajputs came and were followed by the Vaghela Rajputs, and finally they came under Jadeja Rajputs.

Now see this fort and Kutch from the point of view of history

The Jadeja dynasty ruled the princely state of Kutch between 1540 and 1948, at which time India remained a republic. This kingdom was formed by King Khengarji I, who was under the twelve Jadeja aristocratic zamindar families who also belonged to him, as well as two aristocratic families from the Vaghela Rajput community. Khengarji and his successors retained the loyalty of these Bhayat chieftains till the mid-1700s.

In Vikram Samvat 683, the present day Egypt was called 'Misr' or Misar, and there was a kingdom in Misar called "Shonitpur", which was ruled by the great king Jam Devendra Sama. His ancestors were given the title of 'Jam' by the Emperor of Iran. In that year AD 683, Sonitpur was attacked by Omar Khalifa, and King Devendra was defeated in the Battle of Sonitpur. Omar Khalifa offered Devendra's eldest son Aspat the throne of Sonitpur with the condition that Aspat would have to convert to Islam. Therefore Aspat converted to Islam and became the king of Sonitpur. Three other brothers Gajpat, Narpat and Bhupat refused to convert to Islam and moved to present-day Afghanistan. He defeated Raja Ferozeshah and captured Ghazni and Jam Narpat was made the king of Ghazni. He ruled a major part of Afghanistan from Ghazni for 18 years. After that in a war with the emperor of Kabul, he was defeated and he was martyred. His son Samaji moved to present-day Sindh (Pakistan). They were all called "Sama" Rajputs at that time. The king of Sama Rajput was called 'Jam'. Sindh was ruled by several generations of Sama Rajputs. Their capital was called "Sama Nagar" or 'Nagar-Thatha', which is about 100 kilometers away from Karachi, still remains of Thatha, about 100 kilometers from Karachi.

Around 800 AD The very famous emperor "Lakho Ghuraro" was there who defeated the king of Kabul. Jam Mod Sama, eldest son of Lakho Ghuraro, Captured Kutch in 875 AD, 'Gutri Garh' was their capital at that time. After that, the Sama Rajputs ruled Kutch for nearly 200 years. In AD 1075. Mod's son, Jam Saad, built the great fort "Kanthakot". The greatest ruler was Jam Lakho Fulani, who covered 99 yards, and was martyred in a battle with Moolraj Solanki At Atkot (50 km from Rajkot) in AD 1035.

 In AD 1185, Jam Jadaji became the king of Sama Nagar, Sindh. He had no son. He therefore adopted two sons of his younger brother Veraji; Lakhaji and Lakhiyarji. Hence the names of Lakhaji and Lakhiyarji were changed to Lakhaji 'Jadeja', which means son of Jadaji. Subsequently, all the descendants came to be known as 'Jadeja', which means son of Jadaji. That is why Jam Lakhaji is also called Lakha Jadani, he again Captured Kutch in AD 1203 and established his capital at "Lakhiyar Vireo" in the name of his younger brother Lakhiyarji. Lakho Jadani  Ruled in Kutch Between AD 1147 –1175 and chose Jam Rato Radhan, an heir to the Gaddi (throne). Rato meant red in Kutchhi and was called because he wore a red cloth in his turban, which was part of the battle. Used to take care of him in chaos. Jam Raito Radhan had four sons, Zaidji, Hothiji and Gajanji and Odhaji He was given the main capital Lakhiyar Viro ,Kanthakot, Gajod and Bara in Kutch respectively. As Othaji was the youngest and still chosen by Guru Mamaiah Matang to occupy the main throne, he took the throne and all the others remained bhayat, the term bhayat used for all descendants of the royal family. goes. The Bhayat families who control their own fiefdom within the state and follow the feudal system.

For years, injustice to elder brothers by Guru Mamaiya Mathang led to frequent clashes within them, until these houses were merged into two groups of Othaji and Gajanji. The first of these events that changed the history of Kutch is the murder of Jam Hameerji of Lakhiyarviro, the head of the small branch of Jadeja by Jam Rawal of Bara-Tera and descendant of Othaji. It is believed that Jam Rawal attributed the murder of his father Jam Lakhaji to Hamirji, as he was killed within the locality of Lakhiaraviro, and on the pretext of settling a dispute between the two branches of Jadeja O, Kuldevi of Jadejao Sworn in the shoes of mother Ashapura. He invited Hamirji for a meal and killed him with deceit. During this time, Hamirji's two sons, Aloji and Khengarji, were in Ahmedabad and survived the complete destruction of the royal family created by Jam Rawal, after which Jam Rawal captured the throne of Kutch and ruled with supreme authority. . Subsequently, Jam Rawal defeated all the kings of Saurashtra region and occupied those areas and the great kingdom of Navavanagar was established, the capital city was called Jamnagar, which is still a dependent city of Saurashtra. Jamnagar was founded by Jam Rawal on the 7th day of the Shravan silence of the first quarter of this 1596. Jam Rawal never lost any battle in his life. In this 1606, Jam Rawal defeated the combined forces of all the kings of Saurashtra and Gujarat, even the Sultan of Ahmedabad resisted giving 140 cannons to the rival army, which Jam Rawal did not have. Yet Jam Rawal defeated them all, in the great battle of "Mithoi". This place is currently near Reliance Refinery. In that battle, Jam Rawal's younger brother: Hardholji was martyred. This famous war is also known as "sweet war". With the support of the Sultan of Ahmedabad, the combined number of all the kings of Saurashtra and Gujarat was about 2,50,000 and Jam Rawal's army was about 1,50,000. The combined forces had 140 big guns (cannons) which Jam Rawal's army did not have. Before the start of the war there was a meeting of the war specials of Jam Rawal's army, in which it was decided that we can win the battle only if we neutralize the power of the cannons when a particular screw is fitted at the specific place of the cannon. Can and cannot fire in the cannon. Hence a huge meeting of all the armies of Jam Rawal's army was called, in which a 'Beedu' (to carry out a particular task) was circulated, declaring that "Is there a brave Rajput who is a joint enemy army?" One screw can fit all 140 big cannon, "As per the principles of 'Beedu', Bahadur Rajput will be honored by giving 12 villages to the jagir, if no one accepts that challenge, in front of the whole meeting. A holy Brahmin-man will be killed and all those present in the meeting will bear the 'great sin' of Brahma-assassination. Beedu will be broadcast a maximum of four times, yet if one does not accept the challenge, then a holy Brahmin person will be killed. Nobody took the challenge for three times, but on the fourth time, a great brave Rajput, Togaji Sodha, took the challenge with three Jadeja Rajputs, and changed names and costumes like strangers to opposition camps, about big guns. I was eager to know. The great Togaji Sodha and his companions, with bravery, poise and skill, completely disarmed all 140 large cannons of the enemy. Later, when the enemies realized this, a fierce battle ensued between the soldiers of the enemy and these brave 4 men of Jam Rawal's army. Togaji Sodha had 84 wounds in his body when he returned after successfully completing the cancellation of all 140 big guns. Togaji Sodha was one of the greatest war heroes of that century in the world at that time, very few soldiers like Jam Rawal's army. There was a huge panic in the joint forces camp when they realized that only 4 soldiers of Jam Rawal's army destroyed all our cannons, what would happen if all the 1,50,000 soldiers came to fight us. As a last resort, a massive meeting of all 2,50,000 soldiers of the joint forces was called and created a similar array of tactics as Jam Rawal's strategy was that he circulated a 'Beedoo', asking 'Is there any brave in our clan? The person who can get Jam Rawal beheaded? A soldier named Karsanji accepted the challenge. Karsanji left with a white flag on his 'Bhalo' (spear). A white cloth shows' They want to surrender! ', So he was let into the deepest part of Jam Rawal's army camp. Karsanji insisted that he personally deliver the message only to Jam Rawal, not to anyone else. The younger brother of Jam Rawal, and the commander of Jam Rawal's army, Hardholji also told Karsanji that 'He is Jam Rawal, give me that message. Karsanji felt that he was Jam Rawal, and immediately took his spear and attacked Hardholji and he was very injured and later died and he was martyred. Knowing this, Jam Rawal was very angry and ordered to kill Karsanji, but by then Karsanji ran very fast on his horse and left the army camp.

Then Meramanji Hala (a sub-branch of Jadeja Rajputs), a 16-year-old Rajput who was busy bathing her mare in the 'Sihan' river, had her mare named "Patti". They heard a noise and saw a person running and hundreds of people running after him screaming. He soon realized and immediately boarded his mare and the enemy soldiers followed Karsanji. There was a big difference between them. Amidst the pits of the river, about 50 feet wide, Meramanji told his mare that 'this is the time of valor test for the Hala dynasty. Patti jumped a 50-foot river-pit and Meramanji Hala Jadeja, standing on a horse, threw his spear at Karsanji. Meeramanji's spear passed through the heart of Karsanji and his horse and went deep into the soil below. It was the valor of valor of Meramanji Hala Jadeja, one of the greatest warriors of that century. Then thousands of soldiers and Jam Rawal came and saw the valor and valor of Meramanji. Jam Rawal was never a poet, but after seeing this great valor, Jam Rawal spontaneously uttered the words "Hallaji Tara Hath Wakhanu Ke Patti Tara Pagla Vakhanu" (May I praise? May I praise the hands of Meramanji Halaji Or patti mare ki legs!), And these words became the great valor of the Gujarati language, which has inspired millions and crores of people to fight for the nation through the centuries.

After struggling with the Confederates, Lakhaji won and merged the two castes into one property, which he named 'Halaar', after the son of Gajanji of Bara and his ancestor Halaji, though on doing so, he made new ones He shed a lot of blood for the area he had acquired. And on one occasion, after the Sanghis came to their native place of Bara of Kutch, while passing through Lakhiyao, they had doubts about Hamirji's hospitality and he had set out in the village on the outskirts. Decided to spend the night, where he was murdered by the man who chased him. Lakhaji's son Jam Rawal blamed Hamirji, because his father had died within the territory of Lakhiyarviro, and he was desperate to avenge his father's death, over a period of time, over the dispute between the two branches. Under the pretext of reconciliation, Rawal began to develop a cordial relationship with Hamirji. On one such visit to Lakhiaraviro, one day, with the intention of avenging the murder of his father, he invited Jam Hamirji to Bara, and he took Jadeja. Sworn to the supreme goddess (Kuldevi) mother Ashapura, Jam Hameerji decided to accept the invitation as an opportunity to settle the dispute between the two branches, but the women of the house considered it a bad precursor to the young princes Khengarji and Calling Aliyoji back and refusing to leave, Jam Hamirji along with his trusted companions agreed to go to Jam Rawal, after having dinner Jam Hamirji and his companions were surrounded by Jam Rawal's soldiers and they were Killed him.

Hardhroji was made king of Dhrol kingdom by Jam Rawal in 1575 itself. After Jam Rawal, Jam Vibhaji became the king of Navavanagar. After Vibhaji, Jam Sataji-1 became the king of Nawanagar. He was a very great warrior and defeated Emperor Akbar of Delhi twice in the battle of Junagadh near the village of 'Majewadi' in this 1633. 1633, Jam Sattaji defeated the Mughal army in pursuit of Muzaffarshah-third, who was defeated in the war with the Mughal army. 3335 horses and 52 elephants of the Mughal army were captured by Bhanji Dal, the chief commander of Jam Sattaji. Keeping this insult in mind, Akbar once again attacked Jam Sattaji in 'Tamakhan' village (near the dam in the present day irrigation area) in 1640 and Akbar's army was badly defeated again. Very upset Akbar disregarded the state of Ahmedabad and committed 'Aziz Koko'
A new Suba was appointed from Ahmedabad, Gujarat, who again attacked Sattaji with a huge army of 90,000 soldiers. In this famous 'Bharuchmori' war, near Jamrol, Jam Sattaji was defeated, but Akbar had to make a pact with this famous king Jam Sattaji after one and a half years, and again Jam Sattaji became the king of Nawanagar. In his famous book "Akbarnama", Akbar wrote "Sattaji was very powerful and was famous for having an army of 30,000". After defeating Akbar's army at the Battle of Majhwadi, Junagadh in 1633, Jam Sattaji was brought to the local people and The title "King of West India" was given by local poets etc.

Khengarji, who inherited Kutch, was only 15 years old when his father was murdered. He joined Mahmud Begada's army. During a royal hunting event, Khengarji kills a lion and saves the Sultan's life for which he is asked to pay his reward, Khengarji's main ambition was to recapture Kutch and so he fought against Jam Rawal. Asked for support, he was sent to 1000 soldiers and given the right to rule till Morbi and was given the title of 'Rao' by Sultan Mahmud of Ahmedabad. With the cooperation of well-wishers within Kutch and Morvi, Rao Khangar fought with Jam Rawal and gradually began to acquire the areas of Rapar and surrounding villages, as Khangar was the worthy successor to the throne in the kingdom and Dissatisfaction with Jam Rawal increased within the Kutch state. . Jam Rawal was a devotee of Maa Ashapura, and believed that the goddess signaled her to leave Kutch and rule herself in Halar (Saurashtra), and that she would support and help him in this task. Jam Rawal established Saurashtra and established his own rule in Nawanagar. Khengar became the 1st Rao of Kutch in 1549 AD and established Bhuj as the capital.















Saturday, June 20, 2020

चंपानेर(Champaner)

चंपानेर

जय माताजी🙏🙏🙏

चंपानेर भारत के गुजरात राज्य के पंचमहाल ज़िले में स्थित एक नगर है।





चंपानेर गुजरात में बड़ौदा से 21 मील (लगभग 19.2 कि.मी.) और गोधरा से 25 मील (लगभग 40 कि.मी.) की दूरी पर स्थित है। यह गुजरात की मध्ययुगीन राजधानी थी। चांपानेर, जिसका मूल नाम 'चंपानगर' या 'चंपानेर' भी था, की जगह वर्तमान समय में पावागढ़ नामक नगर बसा हुआ है। यहाँ से चांपानेर रोड स्टेशन 12 मील (लगभग 19.2 कि.मी.) है। इस नगर को जैन धर्म ग्रन्थों में तीर्थ स्थल माना गया है। जैन ग्रन्थ 'तीर्थमाला चैत्यवदंन' में चांपानेर का नामोल्लेख है- 'चंपानेरक धर्मचक्र मथुराऽयोध्या प्रतिष्ठानके -।' पावागढ़ पहाड़ी के शिखर पर बना कालिका माता मंदिर पावन स्थल माना जाता है। पहाड़ी पर बना यह काली मंदिर बहुत प्राचीन है। कहा जाता है कि विश्वामित्र ने उसकी स्थापना की थी। इन्हीं ऋषि के नाम से इस पहाड़ी से निकलने वाली नदी 'विश्वामित्री' कहलाती है। महदजी सिंधिया ने पहाड़ी की चोटी पर पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनवाईं थीं। चांपानेर तक पहुँचने के लिए सात दरवाजों में से होकर जाना पड़ता है। यहां वर्षपर्यन्त बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं।




चांपानेर का इतिहास 

चंपानेर की स्थापना चावड़ा वंश के राजा वनराज चावड़ा ने की थी। उनके एक मंत्री का नाम चंपाराज था, जिसके नाम पर इस जगह का नामकरण हुआ। कुछ लोगों का मानना है कि चंपानेर नाम ‘चंपक’ फूल के कारण पड़ा है, क्योंकि इस क्षेत्र के पाए जाने वाले आग के चट्टानों में भी फूलों की तरह ही पीलापन देखने को मिलता है। चंपानेर के ठीक ऊपर बने पावागढ़ किले को खिची चौहान राजपूतों द्वारा बनवाया गया था। बाद में इसपर महमूद बेगड़ा ने कब्जा कर लिया। महमूद बेगड़ा ने इसे अपनी राजधानी बनाया। उन्होंने इसका नाम महमूदाबाद रखा और इस शहर के पुननिर्माण और सजावट के लिए यहां 23 साल गुजारे। बाद में मुगलकाल के दौरान अहमदाबाद को राजधानी बनाया गया, जिससे चंपानेर का गौरव और महत्व खो गया। कई सालों तक तो यह जंगल का हिस्सा रहा। 




हालांकि बाद में जब अंग्रेजों ने सर्वे कराया तो चंपानेर का खोया गौरव फिर से वापस आ गया। शहर की उत्कृष्ट वास्तुशिल्पीय खूबसूरती को देखने के लिए बड़ी संख्या में यहां लोग आते हैं। चंपानेर और आसपास के पर्यटन स्थल चंपानेर में घूमने के लिए बहुत कुछ है। यहां आप चंपानेर की मस्जिदें, सिकंदर शाह का कब्र, हलोल, सकर खान दरगाह, मकाई कोठार/नवलखा कोठार, किला, हेलीकल बावली, ईंट का मकबरा और पावागढ़ किला देख सकते हैं। इसके अलावा यहां के प्रचीन मंदिर, किले की दीवारें, जांबुघोड़ा वन्यजीव अभ्यारण्य, केवड़ी ईको कैंपसाइट और धानपरी ईको कैंपसाइट भी काफी महत्वपूर्ण है। पावागढ़ किला की दीवारों के कुछ हिस्सों का अस्तित्व आज भी है। चंपानेर वड़ोदरा से सिर्फ 45 किमी दूर है, जिससे बस और दूसरे वाहनों से यहां आसानी से पहुंचा जा सकता है। 2004 में चंपानेर को यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया था।





मुग़लों का अधिकार

1535 ई. में मुग़ल बादशाह हुमायूँ ने चांपानेर दुर्ग पर अधिकार कर लिया, पर यह आधिपत्य धीरे-धीरे शिथिल होने लगा और 1573 ई. में अकबर को नगर का घेरा डालना पड़ा और उसने फिर से इसे हस्तगत कर लिया। इस प्रकार संघर्षमय अस्तित्व के साथ चांपानेर मुग़लों के कब्जे में प्राय: 150 वर्षों तक रहा। 1729 ई. में सिंधिया का यहाँ अधिकार हो गया और 1853 ई. में अंग्रेज़ों ने सिंधिया से इसे लेकर बंबई (वर्तमान मुम्बई) प्रांत में मिला दिया। वर्तमान चांपानेर मुस्लिमों द्वारा बसाई गई बस्ती है। राजपूतों के समय का चांपानेर यहाँ से कुछ दूर है।






कालिका माता मंदिर चंपानेर पावागढ़ –




चंपानेर-पावागढ़ पुरातात्विक पार्क के दर्शनीय स्थलों में पार्क के निकट ही यहाँ का सबसे पुराना और सबसे प्रसिद्ध कालिका माता मंदिर स्थित है। मंदिर तक पहुँचने के लिए सीढ़ियों का लम्बा सफ़र तय करना पड़ता हैं। क्योंकि यहाँ के जंगलो के बीच मंदिर बहुत ऊंचाई पर स्थित हैं। पर्यटक जैसे ही मंदिर में प्रवेश करते हैं उन्हें मंदिर के तीनो प्रमुख देवताओं के दर्शन प्राप्त होते हैं। सभी मूर्तियों के बीचों बीच कलिका माता की मूर्ती बाई ओर बहुचरमाता की मूर्ती और दाई ओर देवी काली का आकर्षण हैं।

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English Translation:-

Champaner

Jai Mataji🙏🙏🙏

Champaner is a city located in the Panchmahal district of the Indian state of Gujarat.

Champaner is located 21 miles (about 19.2 km) from Baroda in Gujarat and 25 miles (about 40 km) from Godhra. It was the medieval capital of Gujarat. Champaner, which was originally named 'Champanagar' or 'Champaner', is replaced by a city called Pavagadh at the present time. The Champaner Road station is 12 miles (19.2 km) from here. This city is considered as a pilgrimage site in the Jain scriptures. In the Jain text 'Teerthamala Chaityavadan', Champaner is named - 'Champanerk Dharmachakra Mathurayodhya Pratishthan -.' The Kalika Mata Temple built on the summit of Pavagadh hill is considered a holy place. This Kali temple built on the hill is very ancient. Vishwamitra is said to have founded it. The river originating from this hill in the name of these sages is called 'Vishvamitri'. Mahdji Scindia had built stairs to reach the top of the hill. To reach Champaner one has to go through seven gates. A large number of devotees visit the place year after year.

History of Champaner

Champaner was founded by King Vanraj Chavda of the Chavada dynasty. One of his ministers was named Champaraja, after whom the place was named. Some people believe that the name Champaner is derived from the flower 'Champak', because the fire rocks found in this area also have yellowish appearance like flowers. The Pavagadh fort built just above Champaner was built by the Khichi Chauhan Rajputs. Later Mahmud Begada captured it. Mahmud Begada made it his capital. He named it Mahmudabad and spent 23 years here for the reconstruction and decoration of this city. Ahmedabad was later made the capital during the Mughal period, losing the pride and importance of Champaner. For many years it was part of the forest.

However, when the British conducted the survey later, the lost glory of Champaner returned again. People come here in large numbers to see the city's architectural excellence. Tourist places in and around Champaner Champaner has much to offer. Here you can see the mosques of Champaner, the tomb of Sikandar Shah, Halol, Sakar Khan Dargah, Makai Kothar / Navlakha Kothar, Fort, Helical Baoli, Brick Tomb and Pavagad Fort. Apart from this, ancient temples, fort walls, Jambughoda Wildlife Sanctuary, Kevadi eco campsite and Dhanpari eco campsite are also important here. Parts of the walls of Pavagadh Fort still exist today. Champaner is just 45 km from Vadodara, making it easily accessible by bus and other vehicles. In 2004, Champaner was declared a UNESCO World Heritage Site.

Mughal authority

In 1535 AD, the Mughal emperor Humayun took over the Champaner fort, but this suzerainty gradually began to subside and in 1573 AD Akbar had to encircle the city and he annexed it again. Thus with a struggling existence, Champaner remained in the possession of the Mughals for 150 years. Scindia gained authority here in 1729 AD and in 1853 AD the British took it from Scindia and merged it with Bombay (present-day Mumbai) province. The present Champaner is a settlement inhabited by Muslims. The Champaner of the Rajput times is far from here.


Kalika Mata Temple Champaner Pavagadh -

Among the scenic spots of Champaner-Pavagadh Archaeological Park, the oldest and most famous Kalika Mata Temple is situated near the park. To reach the temple, a long journey of stairs has to be fixed. Because the temples are situated at very high altitude among the forests here. As soon as the tourists enter the temple, they get darshan of the three major deities of the temple. In the midst of all the idols, Kalika Mata's idol is on the left and the idol of Bahucharamata and on the right is the attraction of Goddess Kali.